असली भारतीय

सुनील दीपक

कौन सी पहचान है असली भारतीय की, कौन सी बोली है उसकी, यह सवाल बार बार उठते रहते हैं. इन सवालों के पीछे जो भाव छुपा होता है वह होता है कि असली भारत तो गाँवों में बसता है, असली भारतीय संस्कृति तो वह है जो विदेशी प्रभाव से बची हुई है, यानि कि गाँवों में रहने वाले उसी असली भारत की, या फ़िर पहले किसी ज़माने में होती थी हमारी असली संस्कृति, आजकल तो विदेशी फैशनों और विदेशी टीवी चैनलों ने सब बँटाधार कर दिया. शायद यह सवाल इस लिए भी उठते हैं क्योंकि अधिकाँश लोगों की स्मृतियों में वही दिन हैं जब भारत अपने आप में अधिक सिमटा हुआ था, कोई थोड़े बहुत लोग कभी सिनेमा हाल में अँग्रेजी फ़िल्म देख लेते थे पर कुछ विदेशी पर्यटकों को छोड़ कर विदेश हमारे आम जीवन का हिस्सा नहीं था. भूमण्डलीकरण और बढ़ते उपभोक्तावाद ने आज विदेशी प्रभाव को हमारे सामान्य जीवन में महसूस करना बहुत अधिक आसान कर दिया है.अगर बात भारतीय साहित्य की हो तो यही सवाल बन जाता है कि "कौन सा साहित्य असली भारतीय साहित्य है?"टूरिन में बोलते समय यह प्रश्न अँग्रेजी में लिखने वाले ख्यातिप्राप्त कई भारतीय लेखकों ने उठाया. शशि थरुर ने इस बारे में बहुत कुछ कहा. यानि अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी इस प्रश्न से परेशानी होती है कि कुछ लोग उनके लिखे को "असली " भारतीय साहित्य न होने की आलोचना करते हैं जो उन्हें चुभती है.कई बार भारत में इस बारे में बात हुई तो मुझे लगा कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वालों में पिछले दो दशकों में अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों के प्रति गुस्सा, ईर्ष्या, कड़वाहट सी बन गयी है. आज लेखक होना शायद पहले से कुछ आसान हो गया हो पर केवल लेखन के बस पर जीना आसान नहीं. बड़े, मान्यवर लेखक हो कर भी लोगों को जीने के लिए कुछ न कुछ अन्य काम खोजना पड़ता है. आज भारतीय भाषाओं में टीवी तथा मीडिया की वजह से यह हो सकता है कि लेखक को इनके द्वारा लेखन से जुड़ा हुआ काम ही मिल जाये पर बिना कुछ अन्य काम के केवल उपन्यासों के बल पर घर गृहस्थी चलाना आसान नहीं.लेकिन अँग्रेजी में लिखने वालों पर यह नियम लागू नहीं होता. टूरिन में एक दिन सुबह अल्ताफ टायरवाला से बात कर रहा था तो यही बात मन में आयी थी. २२ साल के अल्ताफ़ ने नौकरी छोड़ कर बैंक से कर्ज लिया और अपना पहला उपन्यास लिखा, आज वह उपन्यास पच्चीसों भाषाओं में अनुवादित और प्रकाशित हो चुका है और वह अपना दूसरा उपन्यास लिखने की सोच रहे हैं. टूरिन में आने से पहले, वह एक बार पेरिस में भी एक साहित्यिक गोष्ठी में भाग ले चुके हैं. इस तरह की सफलता का हिंदी में लिखने वाले साहित्य कला अकादेमी का पुरस्कार पा कर भी नहीं पाते.मेरे विचार में इस बहस में हम दो विभिन्न बातों को मिला रहे हैं.एक बात है किस तरह हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को उनका सही स्थान मिले? कैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने जाने वाले साहित्यकारों और अँग्रेजी में लिखने वाले साहित्यकारों के बीच की विषमता को कम किया जाये? इस विषय में बचपन में पढ़ी एक कहानी की बात पर विश्वास करता हूँ जो स्वामी विवेकानंद के बचपन के बारे में थी. जब शिक्षक ने ब्लैकबोर्ड पर बनी एक रेखा को छोटा करने के लिए कहा तो विवेकानंद नें उसके ऊपर एक बड़ी रेखा बना दी जिसकी तुलना में नीचे की रेखा अपने आप छोटी हो गयी. यानि मेरे विचार में भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को ऊपर उठाने के काम का यह अर्थ नहीं कि अँग्रेजी में लिखे जाने वाले साहित्य को नीचे गिराया जाये, बल्कि इसके दूसरे रास्ते खोजने चाहिये.दूसरी बात है कि क्या अग्रेजी में लिखा जाने वाला साहित्य भी भारतीय साहित्य है? मैं यह मानता हूँ कि हर लेखक की जड़ें कुछ हद तक अपने आसपास के यथार्थ में दबी होती हैं, यानि साहित्य कई तरह का होगा, शहरों में रहने वालों का साहित्य, गाँवों में रहने वालों का साहित्य, सवर्णों का साहित्य, दलितों का साहित्य, मर्दों का साहित्य, औरतों का साहित्य, हिंदी बोलने वालों का साहित्य, कन्नड़ बोलने वालों का साहित्य, अँग्रेजी बोलने वालों का साहित्य. जब यह सभी समाज भारतीय हैं तो यह सभी साहित्य भी भारतीय हैं. सवाल यह नहीं कि कौन सा असली, सवाल यह है कि कौन सा साहित्य दबा हुआ है, अविकसित है.मुझे लगता है कि साहित्य का एक सागर है, यह अलग अलग नामों वाले साहित्य विभिन्न धाराएँ हैं जो उसी सागर का हिस्सा हैं. इस तरह हिस्सों में बाँट कर देखना शायद गलत है क्योंकि इससे मेरा, तेरा सोचने का खतरा है पर जब कोई धारा दबी हुई हो या अविकसित हो, तो हिस्सों में बाँट कर देखना भी उपयुक्त हो सकता है.सवाल बड़े फैले हुए पेड़ को काट कर उसे छोटा करने का नहीं, सवाल यह है कि बाकी के छोटे पौधों को किस तरह पनपने की जगह मिले?

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