एक ग़ालिब और एक रघुपति सहाय फ़िराक़
एक ग़ालिब और एक रघुपति सहाय फ़िराक़
फ़िराक़ का नाम आते ही ग़ालिब याद आ जाते हैं.
ग़ालिब अपने युग में आने वाले कई युगों के शायर थे, अपने युग में उन्हें इतना नहीं समझा गया जितना बाद के युगों में पहचाना गया. हर बड़े दिमाग़ की तरह वह भी अपने समकालीनों की आँखों से ओझल रहे.
भारतीय इतिहास में वह पहले शायर थे, जिन्हें सुनी-सुनाई की जगह अपनी देखी-दिखाई को शायरी का मैयार बनाया, देखी-दिखाई से संत कवि कबीर दास का नाम ज़हन में आता है- तू लिखता है कागद लेखी, मैं आँखन की देखी.
लेकिन कबीर की आँखन देखी और ग़ालिब की देखी-दिखाई में थोड़ा अंतर भी है. कबीर सर पर आसमान रखकर धरती वालों से लड़ते थे और आखिरी मुगल के दौर के मिर्ज़ा ग़ालिब दोनों से झगड़ते थे, इसी लिए सुनने और पढ़ने वाले उनसे नाराज़ रहते थे. लालकिले के एक मुशायरे में, ख़ुद उनके सामने उनपर व्यंग किया गया.
कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे
मीर और मीरज़ा से व्यंगकार की मुशद ग़ालिब से पहले के शायर मीर तकीमीर और मीरज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा थी. ग़ालिब को इस व्यंग्य ने परेशान नहीं किया. उन्होंने इसके जवाब में ऐलान किया.
न सताइश (प्रशंसा) की तमन्ना, न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी (अर्थ) न सही
...और रघुपति सहाय फ़िराक़
मिर्ज़ा ग़ालिब का यह आत्मविश्वास उनकी महानता की पहचान है. ग़ालिब की तरह रघुपति सहाय फ़िराक़ भी अपने ज़माने में आलोचना का निशाना बने, लेकिन वह अपनी डगर से नहीं डिगे. उन्होंने वही लिखा जो भोगा और जिया और अपने आलोचकों को अपने जीवनकाल में यूँ जवाब दिया था.
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क (गर्व) करेंगी हम अस्रो(समकालीन)
जब उनको यह ख़्याल आएगा, तुमने फ़िराक़ को देखा था.
मैं उन चंद ख़ुश किस्मतों में हूँ जिन्होंने फ़िराक़ साहब को देखा भी था और उनके साथ मुशायरा भी पढ़ा था. और उन्हें बोलते हुए सुना भी था. फ़िराक़ के आत्मविश्वास से फूटी यह भविष्यवाणी कितनी सच थी, इसका एहसास आज मेरी तरह उन सबको है जो अतीत में इस क़ीमती तजुर्बे से गुजर चुके हैं.
फ़िराक़ की शायरी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. उनकी गज़लों के बारे में अब कुछ कहना, पहले से लिखी-लिखाई बातों को दोहराने जैसा होगा. सिर्फ़ इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि ग़ालिब और मीर के बाद अगर कोई तीसरा नाम लिया जा सकता है, वह उर्दू शायरी में फ़िराक़ का नाम होगा.
उनकी इस अज़मत का राज़ उस रिश्ते से है, जो गोरखपुर के एक कामयाब वकील मुंशी गोरख प्रसाद के घर पैदा होने के कारण उन्हें विरासत में मिला था. इस विरासत का नाम वह भारत था जो पांच हज़ार साल की तहजीव से अमीर था.
उस अमीरी का जिक्र स्वामी रामतीर्थ ने अपनी एक कविता में यूँ लिखा है- हिंदुस्तान की विशाल धरती मेरा शरीर है. मेरे पाँव कन्याकुमारी की घाटी है. मेरा सर हिमालय की बुलंद चोटी है. मेरी जटाओं से गंगा उतरती है. मेरे सर ब्रह्मपुत्र फूटती है. मेरी बाहें तमाम विश्व को समेटे है. मेरा प्रेम असीम है, मैं शंकर हूँ. मैं शिव हूँ.
फ़िराक़ ने पहली बार इस अज़ीम विरासत को अपने शब्दों की अजमत बनाया है और हुस्नो-इश्क़ की दुनिया में नए ज़मीन-आसमान को दर्शाया है.
सफ़र-ए-फ़िराक़
फ़िराक़ गोरखपुरी 1896 में पैदा हुए. तालीम इलाहाबाद में पूरी की. कुछ साल पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया. जेल भी गए. बाद में इलाहाबाद यूनीवर्सिटी के स्टाफ़ में शरीक हुए और यहीं से 1959 में रिटायर होकर निरालाजी के नगर इलाहाबाद के इतिहास का हिस्सा बन गए.
आह यह मजमा-ए-एहबाब (मित्रों की संगत) यह बज़्मे खामोश
आज महफिल में फ़िराक़े सुख़न-आरा भी नहीं.
1896 से 1982 तक की इस जीवन-यात्रा में फ़िराक़ ने अपने पैरों से चलकर अपनी आँखों से देखकर पूरा किया. अपनी ज़िदंगी को उन्होंने अपनी शर्तों पर जिया. इन शर्तों के कारण वह परेशान भी रहे.
इन आए दिन की परेशानियों ने उनकी रातों की नींदे छीन लीं. परिवार होते हुए अकेला रहने पर मजबूर किया, एक मुसलसल तन्हाई को उनका मुक़द्दर बना दिया. लेकिन इन सबके बावजूद वह ज़िंदगी भरते और हक़ीक़तों में ख्वाबों के रंग भरते रहे, फ़िराक़ साहब को इश्क़ और मुहब्बत का शायर कहा जाता है.
लेकिन इश्क़ और मुहब्बत के शायर की ज़िंदगी में इन्हीं की सबसे ज़्यादा कमी थी. फ़िराक़ ने इस कमी या अभाव को अपनी शायरी की ताक़त बनाया है और वह कर दिखाया है जो आज भारतीय साहित्य का सरमाया है.
फ़िराक़ साहब सोचते हुए दिमाग़ के आदमी थे. ऐसे आदमी की उलझनों की संख्या जितनी कम होती है उतनी ही बढ़ती रहती है. फिर यूँ होता है आदमी को इन उलझनों के साथ रहने की आदत पड़ जाती है.
फ़िराक़ ने इन उलझनों को, जो अक्सर उनके मिज़ाज और जीने के अंदाज़ की देन थी, ज़िंदगी का हिस्सा समझकर कुबूल कर लिया था. इस कुबूलियत की वजह से उनकी शायरी उन ऊँचाइयों को छूती नज़र आती है जो सूफ़ी की आँख और आशिक के दिल के मिलाप से जगमगाता है.
फ़िराक़ साहब ने अपनी इन ज़हनी उलझनों के बारे में ख़ुद लिखा है- "18 वर्ष की उम्र में मेरी शादी कर दी गई, मेरी बीवी की शक्लो सूरत वही थी, जो उन लोगों की थी, जिनसे मैं बचपन में भी दूर रहता था. वह अनपढ़ थी. इस शादी ने मेरी ज़िंदगी को एक ज़िंदा मौत बनाकर रख दिया."
फ़िराक़ साहब ने जो लिखा है वह कहाँ तक सच है यह तो नहीं बताया जा सकता. परंतु यह हक़ीक़त है कि वह जिन बेटियों और बेटे के पिता थे वे सब उन्हीं के जन्मे थे जिन्होंने उनकी ज़िंदगी को ‘ज़िंदा मौत’ बना कर दिया था.
फ़िराक़ साहब बड़े शायर थे लेकिन निजी जीवन में उनके विचार पुरुष-प्रधान समाज की ग्रंथियों से मुक्त नहीं थे...शायद उनकी इसी कमज़ोरी ने उनकी ग़ज़लों और रूबाइयों में वह स्त्री रूप उभारा है. जो उनसे पहले उर्दू शायरी में इतनी नर्मी और सौंदर्य के साथ कहीं नज़र नहीं आता है...
फ़िराक़ दिमाग से भले ही अपने समय के बंदी हों मगर अपने शायर दिल के लिहाज़ से उन मूल्यों के पुजारी थे जो समय के साथ नहीं बदलते. फ़िराक़ का कारनामा यह है कि उन्होंने अपनी शायरी में दिल पर दिमाग़ को कभी हावी नहीं होने दिया.
ग़ालिब ने बीवी होते हुए एक डोमनी को अपनाया और फ़िराक़ ने पत्नी को छोड़कर ख़्वाब सजाया- लेकिन दोनों की निजी कमज़ोरियों ने उनकी शायरी को नुक़सान नहीं पहुँचाया. फ़िराक़ की यही हुनरमंदी उनके बड़े होने की अलामत है.
ज़िंदगी में जो एक कमी सी है. यह ज़रा सी कमी बहुत है मियाँ.
निदा फ़ाज़ली
शायर और लेखक
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मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे