शहर बदल रहा है, हम गवाह हैं, पर...



पाणिनी आनंद


एक शहर में रहना और बात है और उस शहर को जानना और बात... जब तक शहर को जाना न जाए, रहना अधूरापन ही होता है.
पर किसी महानगर में बड़ी दूरियाँ तय करके रोज़मर्रा के काम निपटाते हुए, आते-जाते हुए हम अक्सर ऐसे कई पहलुओं को देखते हुए भी अनदेखा ही रखते हैं जो उस शहर की पहचान होते हैं.

समाज की इसी चाल को ध्यान में रखकर लेखक और पत्रकार सैम मिलर ने दिल्ली जैसे महानगर के ऐसे कई पहलुओं को एक किताब के ज़रिए लोगों से रूबरू कराया है ताकि एक बदलते हुए समाज और शहर के इतिहास को देखा-जाना जा सके.

सैम मिलर की इस किताब का शीर्षक है- 'दिल्ली, एडवेंचर्स इन अ मेगासिटी'
गुरुवार की शाम दिल्ली में एक बड़े समारोह में इस किताब का लोकार्पण हुआ जिसमें साहित्य और कला, लेखन से जुड़े कई लोग शामिल हुए.

साथ ही इस मौके पर कई पत्रकार भी पहुँचे. सैम मिलर खुद बीबीसी के दक्षिण एशिया प्रोग्राम के प्रबंध संपादक रह चुके हैं. भारत और ख़ासकर दिल्ली को सैम 1987 से जान रहे हैं.

दिल्ली, मेरी दिल्ली

सैम अपनी इस किताब में दिल्ली के इतिहास के अध्यायों को उस तरह से दोहराने से बच रहे हैं जो इतिहासकारों की कलम से निकलकर सामने आता रहा है.

इसी लिहाज से यह किताब अलग भी है क्योंकि सैम ने इस किताब के ज़रिए उन बातों, जगहों, लोगों को सामने लाने की कोशिश की है जो शहर का अहम हिस्सा तो हैं पर इतिहास या विकास को समझने की कड़ी नहीं माने जाते.

या यूं कहें कि दिल्ली की ज़िंदगी की अनकही कहानी को सैम ने लोगों के सामने लाकर रखा है.

जब किताब के ज़रिए सैम, सत्यजित रे की किसी फ़िल्म में दिखती दिल्ली का कोई पुराना परकोटा, किसी सड़क किनारे काले पर्दे वाले फ़ोटोग्राफ़र या किसी सूख चुकी बावड़ी की चर्चा करते हैं तो दिल्ली को जानने वालों को लगता है कि इससे तो वे भी परिचित थे या हो सकते थे, फिर इसपर कभी ध्यान क्यों नहीं गया.

पर सैम ने ऐसे चरित्रों के ज़रिए दिल्ली को क्योंकर दिखाया है, पूछने पर सैम मुस्कराते हैं और कहते हैं कि कनॉट प्लेस के पास अपने दफ़्तर की 13वीं मंज़िल से उन्होंने तेज़ी से बदलती दिल्ली को देखा. यहीं से विचार आया कि क्यों न उन जगहों, बातों को फिर से देखा और खोजा जाए जो कभी दिल्लीवालों के लिए मील के पत्थर रहे होंगे, इस शहर की पहचान रहे होंगे.

कई बातें दिल्ली ने सैम को रास्तों पर चलते, संग्रहालयों से गुज़रते या किसी सार्वजनिक जगह पर आम सी लगनेवाली चीज़ों के ज़रिए सिखा दीं.

दिल्ली, जो मेरा शहर है...
तो फिर ऐसा क्यों है कि 20 बरस पहले आए किसी विदेशी मूल के व्यक्ति की किताब के ज़रिए वे लोग भी दिल्ली देख रहे हैं जिनकी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा इसी शहर में बीता, गुज़रा है.

यह पूछने पर कुछ पत्रकार और इतिहास से जुड़े लोग कहते हैं कि कई बार हमारे समाज के लिए कुछ चीज़ें बहुत आम होती हैं, पर बाहर से आकर उन्हें देखने-बताने वाला उन्हीं मालूमी चीज़ों में जान डाल देता है.

सैम मिलर से भी कहीं पुराना वास्ता भारत से रहा है बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार मार्क टली का. मार्क दिल्ली नहीं, पूरे देश के कई कोनों में गए, कई ऐसी बातों को सामने लेकर आए जो थीं तो पर इतिहास की परतों में दबी हुई.

उनकी एक किताब, इंडिया इन स्लो मोशन इसी भारत को दिखाती चलती है. अब बीबीसी के एक और विदेशी मूल के पत्रकार के ज़रिए दिल्ली को नए चश्मे से दिखाया जा रहा है.

वैसे विकास के क्रम में तेज़ी से बदलते दिल्ली में मैट्रो का आना सैम एक सकारात्मक और बेहतर क़दम मानते हैं. कम होते प्रदूषण से कुछ राहत महसूस करते हैं पर प्रदूषण का अभी भी जो स्तर है और महिलाएं जितनी असुरक्षित हैं, वो अब भी सैम को चिंतित करता है.

दिल्ली की तस्वीर बदलनेवालों से सैम इतना भर ही माँगते हैं.

पेंग्विन प्रकाशन से छपी यह किताब भारत में 499 रूपए के प्रकाशित मूल्य पर उपलब्ध है.

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