मकबूल - वो कौन चित्रकार था


वो शायद हिंदुस्तान के अकेले ऐसे चित्रकार थे... जिन्हे देश में अमूमन हर कोई जानता था... विवादों ने उनकी सोच... उनकी कल्पना को बदलने की पूरी कोशिश की... लेकिन उनके एहसास ने कभी भी सरहदों को नहीं माना... अब मक़बूल फिदा हुसैन हमारे बीच में नहीं हैं... लेकिन उनकी कूची से निकली रंगत और उनकी यादें हमेशा हमारे ज़हन में रहेंगी...कूची से ज़िंदगी के रंगों को कैनवास पर उतारनेवाला एक कमाल का फ़नकार अब इस दुनिया में नहीं है... मक़ूबूल फ़िदा हुसैन के चित्र जिस खामोशी से खुशियों और रंजोग़म को बयां कर देते थे... उसी खामोशी के साथ वो ज़िद्दी चित्रकार दुनिया को अलविदा कह गया... 17 सितंबर 1915 को जन्मे फ़िदा को फुटबॉल पर ताक़त आज़माइश बहुत अच्छी लगती थी... लेकिन उनकी मासूम कल्पनाओं को रंग देनेवाली कूची उनकी पहली पसंद थी...उनके चित्रों की गहराई को समझना आसान नहीं है... जो विषय उनके बेहद क़रीब था... वो था महिला विषय... फ़िदा की अदा उनके रंगों की दुनिया में उन्हे एकदम जुदा बना देती थी... हर पेंटिंग में एक खालीपन... एक अधूरापन... जैसे लगता कुछ है जो हुसैन साहब अपने पास छिपा गए... शायद ये उनकी ज़िंदगी का कोई रंज था... जो कैनवास पर साफ़ झलक जाता...
मक़बूल साहब का इंदौर से पुराना नाता था... यहां कि मिट्टी ने उनके मासूम से नंगे पांवों को महसूस किया है... अपने एहसास को फ़िदा ने यहीं रंगीन किया... वो तब महज़ तीन साल के ही थे... जब पिता के साथ इंदौर आ गए... संयोगिता गंज का दरकता मक़ान फ़िदा की उम्र के साथ-साथ बूढ़ा होता चला गया... ऐसा लगता है कि दीवारों पर पड़ी दरारें अपने पुराने साथी को खोल देने का दर्द बयां कर रही हों... घर के पास का ये माध्यमिक विद्यालय उनके बचपने का गवाह है... फ़िदा के खयालों को यहां की तालीम ने काफी ऊंचाई दी..वो दौर अलग था... ब्रिटिश राज, फनकारों के लिए क्रांतिकारी सोच लेकर आया था... 1934 में इंदौर के ललित कला विथिका में एम एफ हुसैन ने चित्रकारी का गुर सीखा.. वो ऐसे चित्रकार थे... जो फिल्म निर्माण से लेकर... शेरो शायरी तक में दिलचस्पी रखते थे..पूरी दुनिया हुसैन के लिए कर्मभूमि थी... लेकिन इंदौर से उनका ख़ास लगाव था... यहां की मिट्टी में उनकी याद सदियों तक समाई रहेगी...
96 साल की अपनी ज़िंदगी में मक़बूल साहब ने भारत में ढेरों कैनवास रंगे और दुनिया को भी रंगों की भाषा से मोहित किया... लेकिन कुछ काले रंग भी थे... जो उनकी ज़िंदगी में कूची से निकले तो फेफड़े में कैंसर का दर्द ढो रहा उस चित्रकार को हिंदुस्तान की सरहद छोड़नी पड़ी... फिर भी कहते हैं ना कि कल्पना और कला को वतन और सरहदें बांधकर नहीं रख पातीं... मक़बूल वतन छोड़ लंदन गए... और उनके पास कतर की नागरिकता ख़ुद चलकर आई... फ़िदा ने बता दिया कि दुनिया उन पर फ़िदा है... वो हवा की तरह थे... सरहदों में कहां बंधनेवाले थे... ज़िंदगी की सरहद भी उस चित्रकार को रोक नहीं सकी... और वो सबसे बड़े चित्रकार से मिलने अपने आख़िरी सफ़र पर निकल गया.

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