पाकिस्तान: जब-तब पटरी से उतरा लोकतंत्र
पाकिस्तान: जब-तब पटरी से उतरा लोकतंत्र
पाकिस्तान में पिछले साठ साल में लोकतंत्र कई बार पटरी से उतरा और इसके अनेक कारण रहे. लेकिन सबसे अहम वजह रही आज़ादी के आंदोलन में नेतृत्व करने वाले नेताओं का साया हमारे सिर से बहुत जल्दी उठ गया.
इन नेताओं में क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान प्रमुख थे. उधर भारत में पंडित नेहरू जैसे नेताओं ने 1964 तक अपने देश का नेतृत्व किया.
आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले नेता संविधान के मूल मुद्दों को सुलझाते हैं. लेकिन पाकिस्तान में इन नेताओं के जल्द चले जाने से कई अहम मुद्दों पर आम सहमति नहीं बन पाई.
इनमें प्रांतों को किस हद तक स्वायत्ता दी जाए, प्रशासन में इस्लाम की क्या भूमिका हो, संसदीय प्रणाली हो या राष्ट्रपति को ज़्यादा अधिकार दिए जाएँ, ऐसे मुद्दे शामिल है और इसीलिए इन पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई.
23 साल बाद चुनाव
वर्ष 1956 तक देश का संविधान नहीं बन पाया. जब बना भी तो चुनाव नहीं हो पाए और सेना ने सत्ता हथिया ली.
आज़ादी के 23 साल बाद 1970 में पहले आमचुनाव हुए. लोकतंत्र के पटरी से उतरने का दूसरा बड़ा कारण मैं पाकिस्तानी प्रांतों के आकार में बड़ी असमानता को मानता हूँ.
वर्ष 1971 के पहले पूर्वी पाकिस्तान का प्रांत शेष चारों प्रांतों से आकार में बड़ा था और 1971 के बाद पंजाब प्रांत शेष तीनों से संयुक्त रूप से भी बड़ा है.
इससे संरचनात्मक कमज़ोरी पैदा हुई और एक व्यवहारिक राजनीतिक व्यवस्था बनाना मुश्किल हो गया. इन समस्याओं से हम आज तक जूझ रहे हैं.
भारत के साथ तनाव
तीसरा बड़ा कारण मैं भारत के साथ गत छह दशकों में अलग-अलग समय पर पैदा हुए तनाव को मानता हूँ.
आज़ादी के एक साल के भीतर ही कश्मीर मुद्दे पर भारत से लड़ाई छिड़ गई. उसके बाद 1965 और 1971 में युद्ध हुए. युद्धों की वजह से पाकिस्तानी व्यवस्था में सेना का प्रभाव ख़ासा बढ़ गया.
धीरे-धीरे सेना ने देश की अहम राजनीतिक संस्थाओं पर भी प्रभाव बढ़ाना शुरु कर दिया.
देश की सुरक्षा के लिए सेना की ज़रूरत के कारण जब-तब ग़ैर-फ़ौजी लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कायम हुई तो राजनीतिक दलों और नेताओं को बदनाम करने की कोशिशें हुई.
भारत से ख़तरे की आड़ में...
मैं मानता हूँ कि अगर कश्मीर समस्या का समाधान पचास के ही दशक में हो गया होता तो शायद आज पाकिस्तान में लोकतंत्र कायम होता. भारत से खतरे की आड़ में ही पाकिस्तान में लगातार सैनिक शासन पनपता रहा है.
चौथा बड़ा कारण कि संसदीय व्यवस्था को स्थापित होने और जड़ें जमाने में कुछ समय लगता है.
इसमें कुछ कमज़ोरियाँ भी होती है क्योंकि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का कुछ क्षेत्रों में कार्यविभाजन अस्पष्ट होता है.
सत्ता का केंद्रीयकरण
इन साठ साल में पाकिस्तान में लगभग तीस साल तक सैन्य शासन रहा और सेना ने केंद्रीयकरण को बढ़ावा दिया.
जब सेना का शासन नहीं रहा तब भी इस केंद्रीयकरण का प्रभाव बना रहा. इससे ही प्रांतों की स्वायत्ता का मुद्दा अधर में लटका रहा तथा छोटे प्रांतों को उनका वाजिब हक़ नहीं मिल पाया.
ये सच है कि लोकतंत्र के लिए पाकिस्तान में कई बार अभियान चले हैं और पाकिस्तान के समाज में ऐसे कई उदारवादी लोग हैं जो इसके बारे में सक्रिय हैं.
ये मानना होगा कि भारत जैसे जातिप्रधान व्यवस्था वाले देश में सामाजिक असमानता से निपटने में लोकतंत्र ने वाकई बहुत प्रभावशाली भूमिका निभाई है.
उधर, पाकिस्तान में अयूब ख़ान और ज़िया-उल-हक़ के सैन्य शासन के दौरान भी लोकतंत्र बहाली के लिए प्रदर्शन और आंदोलन हुए. लेकिन हाल में मुख्य न्यायाधीश इफ़्तिख़ार चौधरी की पुनर्बहाली की घटना अपने-आप में ऐतिहासिक है.
इफ़्तिख़ार मामले पर प्रदर्शन
चौधरी के पक्ष में पाकिस्तान के आंदोलन लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष में नई शुरूआत है.
मैं समझता हूँ कि ये सिर्फ़ चीफ जस्टिस की बहाली के लिए आंदोलन नहीं था, बल्कि़ मुझे लगता है कि लोगों के बीच ये सामाजिक आंदोलन बड़ा रूप लेता जा रहा है.
लोग क़ानून का राज चाहते हैं. क्योंकि क़ानून का राज उन्हें परिपक्व समाज और लोकतंत्र की संतुष्टि देता है.
मेरे विचार है कि यदि ये धारणा यूँ ही फैलती रही तो इस अभियान को कोई ताक़त नहीं रोक पाएगी.
इससे कई सारे उद्देश्य भी हासिल होंगे. मसलन सैनिक शासन समाप्त होगा, क़ानून का राज स्थापित होगा. न्यायपालिका की स्वतंत्रा और चुनाव आयोग जैसी दूसरी स्वतंत्र संस्थाएँ स्थापित होंगी.
लोकतंत्र और क़ानून के राज से ही शक्तियों का बंटवारा और संविधान के प्रति सम्मान पैदा होता है.
आगामी आम चुनावों में सत्ता का विकेंद्रीकरण और प्रांतीय स्वायत्ता के मुद्दे अहम होंगे और अगर इन सिद्धांतों का समर्थन कर रही पार्टियों और क़ानून के राज को समर्थन मिला तो हम फिर से लोकतंत्र को पटरी पर ले आएँगे.
सैन्य शासन का विरोध
जहाँ तक पाकिस्तान के लोकतंत्र के सफ़र में अहम पड़ाव की बात है और जो आने वाले दिनों में लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनेंगे, तो मुझे लगता है कि 1966 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो का अयूब ख़ान के ख़िलाफ़ चलाया गया अभियान अहम था.
अयूब ख़ान ने 1958 में सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था और ज़ुल्फ़िकार भुट्टो विदेश मंत्री बने थे.
लेकिन बाद में उन्होंने सैन्य शासन को चुनौती दी और ज़ोरदार अभियान चलाया. आख़िरकार अयूब ख़ान को सत्ता छोड़नी पड़ी.
1970 के चुनाव में पश्चिमी पाकिस्तान में ज़ुल्फ़िकार भुट्टो भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए, लेकिन साढे़ पाँच साल बाद सेना ने ज़िया-उल-हक़ के नेतृत्व में एक बार फिर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. एकमात्र बड़ी पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी कमज़ोर हो गई.
दो बड़ी पार्टियाँ
लेकिन जब ज़िया-उल-हक़ ने स्थानीय निकायों के चुनाव कराए तो पाकिस्तान मुस्लिम लीग का गठन हुआ.
लगातार इस पार्टी की ताक़त में इजाफ़ा होता गया और 1988 में देश में दो बड़ी पार्टियां बन गई. सभी चारों प्रांतों में इनके जड़ें थी. वर्ष 1988, 1990, 1993 और 1997 के चुनाव में इन दोनों पार्टियों - पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल) ने कुल 75 फ़ीसदी सीटें जीती.
मेरे विचार से देश में दो बड़ी पार्टियों का होना पाकिस्तान के लोकतंत्र के सफ़र का दूसरा अहम पड़ाव रहा.
तीसरा पड़ाव इसी साल मार्च में मुख्य न्यायाधीश इफ़्तिख़ार चौधरी की पुनर्बहाली के लिए वकीलों और आम आदमी द्वारा चलाया गया आंदोलन रहा. जिससे फ़लस्वरूप उन्हें मुख्य न्यायाधीश के पद पर बहाल कर दिया गया
साभार-बीबीसी
पाकिस्तान में पिछले साठ साल में लोकतंत्र कई बार पटरी से उतरा और इसके अनेक कारण रहे. लेकिन सबसे अहम वजह रही आज़ादी के आंदोलन में नेतृत्व करने वाले नेताओं का साया हमारे सिर से बहुत जल्दी उठ गया.
इन नेताओं में क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान प्रमुख थे. उधर भारत में पंडित नेहरू जैसे नेताओं ने 1964 तक अपने देश का नेतृत्व किया.
आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले नेता संविधान के मूल मुद्दों को सुलझाते हैं. लेकिन पाकिस्तान में इन नेताओं के जल्द चले जाने से कई अहम मुद्दों पर आम सहमति नहीं बन पाई.
इनमें प्रांतों को किस हद तक स्वायत्ता दी जाए, प्रशासन में इस्लाम की क्या भूमिका हो, संसदीय प्रणाली हो या राष्ट्रपति को ज़्यादा अधिकार दिए जाएँ, ऐसे मुद्दे शामिल है और इसीलिए इन पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई.
23 साल बाद चुनाव
वर्ष 1956 तक देश का संविधान नहीं बन पाया. जब बना भी तो चुनाव नहीं हो पाए और सेना ने सत्ता हथिया ली.
आज़ादी के 23 साल बाद 1970 में पहले आमचुनाव हुए. लोकतंत्र के पटरी से उतरने का दूसरा बड़ा कारण मैं पाकिस्तानी प्रांतों के आकार में बड़ी असमानता को मानता हूँ.
वर्ष 1971 के पहले पूर्वी पाकिस्तान का प्रांत शेष चारों प्रांतों से आकार में बड़ा था और 1971 के बाद पंजाब प्रांत शेष तीनों से संयुक्त रूप से भी बड़ा है.
इससे संरचनात्मक कमज़ोरी पैदा हुई और एक व्यवहारिक राजनीतिक व्यवस्था बनाना मुश्किल हो गया. इन समस्याओं से हम आज तक जूझ रहे हैं.
भारत के साथ तनाव
तीसरा बड़ा कारण मैं भारत के साथ गत छह दशकों में अलग-अलग समय पर पैदा हुए तनाव को मानता हूँ.
आज़ादी के एक साल के भीतर ही कश्मीर मुद्दे पर भारत से लड़ाई छिड़ गई. उसके बाद 1965 और 1971 में युद्ध हुए. युद्धों की वजह से पाकिस्तानी व्यवस्था में सेना का प्रभाव ख़ासा बढ़ गया.
धीरे-धीरे सेना ने देश की अहम राजनीतिक संस्थाओं पर भी प्रभाव बढ़ाना शुरु कर दिया.
देश की सुरक्षा के लिए सेना की ज़रूरत के कारण जब-तब ग़ैर-फ़ौजी लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कायम हुई तो राजनीतिक दलों और नेताओं को बदनाम करने की कोशिशें हुई.
भारत से ख़तरे की आड़ में...
मैं मानता हूँ कि अगर कश्मीर समस्या का समाधान पचास के ही दशक में हो गया होता तो शायद आज पाकिस्तान में लोकतंत्र कायम होता. भारत से खतरे की आड़ में ही पाकिस्तान में लगातार सैनिक शासन पनपता रहा है.
चौथा बड़ा कारण कि संसदीय व्यवस्था को स्थापित होने और जड़ें जमाने में कुछ समय लगता है.
इसमें कुछ कमज़ोरियाँ भी होती है क्योंकि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का कुछ क्षेत्रों में कार्यविभाजन अस्पष्ट होता है.
सत्ता का केंद्रीयकरण
इन साठ साल में पाकिस्तान में लगभग तीस साल तक सैन्य शासन रहा और सेना ने केंद्रीयकरण को बढ़ावा दिया.
जब सेना का शासन नहीं रहा तब भी इस केंद्रीयकरण का प्रभाव बना रहा. इससे ही प्रांतों की स्वायत्ता का मुद्दा अधर में लटका रहा तथा छोटे प्रांतों को उनका वाजिब हक़ नहीं मिल पाया.
ये सच है कि लोकतंत्र के लिए पाकिस्तान में कई बार अभियान चले हैं और पाकिस्तान के समाज में ऐसे कई उदारवादी लोग हैं जो इसके बारे में सक्रिय हैं.
ये मानना होगा कि भारत जैसे जातिप्रधान व्यवस्था वाले देश में सामाजिक असमानता से निपटने में लोकतंत्र ने वाकई बहुत प्रभावशाली भूमिका निभाई है.
उधर, पाकिस्तान में अयूब ख़ान और ज़िया-उल-हक़ के सैन्य शासन के दौरान भी लोकतंत्र बहाली के लिए प्रदर्शन और आंदोलन हुए. लेकिन हाल में मुख्य न्यायाधीश इफ़्तिख़ार चौधरी की पुनर्बहाली की घटना अपने-आप में ऐतिहासिक है.
इफ़्तिख़ार मामले पर प्रदर्शन
चौधरी के पक्ष में पाकिस्तान के आंदोलन लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष में नई शुरूआत है.
मैं समझता हूँ कि ये सिर्फ़ चीफ जस्टिस की बहाली के लिए आंदोलन नहीं था, बल्कि़ मुझे लगता है कि लोगों के बीच ये सामाजिक आंदोलन बड़ा रूप लेता जा रहा है.
लोग क़ानून का राज चाहते हैं. क्योंकि क़ानून का राज उन्हें परिपक्व समाज और लोकतंत्र की संतुष्टि देता है.
मेरे विचार है कि यदि ये धारणा यूँ ही फैलती रही तो इस अभियान को कोई ताक़त नहीं रोक पाएगी.
इससे कई सारे उद्देश्य भी हासिल होंगे. मसलन सैनिक शासन समाप्त होगा, क़ानून का राज स्थापित होगा. न्यायपालिका की स्वतंत्रा और चुनाव आयोग जैसी दूसरी स्वतंत्र संस्थाएँ स्थापित होंगी.
लोकतंत्र और क़ानून के राज से ही शक्तियों का बंटवारा और संविधान के प्रति सम्मान पैदा होता है.
आगामी आम चुनावों में सत्ता का विकेंद्रीकरण और प्रांतीय स्वायत्ता के मुद्दे अहम होंगे और अगर इन सिद्धांतों का समर्थन कर रही पार्टियों और क़ानून के राज को समर्थन मिला तो हम फिर से लोकतंत्र को पटरी पर ले आएँगे.
सैन्य शासन का विरोध
जहाँ तक पाकिस्तान के लोकतंत्र के सफ़र में अहम पड़ाव की बात है और जो आने वाले दिनों में लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बनेंगे, तो मुझे लगता है कि 1966 में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो का अयूब ख़ान के ख़िलाफ़ चलाया गया अभियान अहम था.
अयूब ख़ान ने 1958 में सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था और ज़ुल्फ़िकार भुट्टो विदेश मंत्री बने थे.
लेकिन बाद में उन्होंने सैन्य शासन को चुनौती दी और ज़ोरदार अभियान चलाया. आख़िरकार अयूब ख़ान को सत्ता छोड़नी पड़ी.
1970 के चुनाव में पश्चिमी पाकिस्तान में ज़ुल्फ़िकार भुट्टो भारी बहुमत के साथ सत्ता में आए, लेकिन साढे़ पाँच साल बाद सेना ने ज़िया-उल-हक़ के नेतृत्व में एक बार फिर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. एकमात्र बड़ी पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी कमज़ोर हो गई.
दो बड़ी पार्टियाँ
लेकिन जब ज़िया-उल-हक़ ने स्थानीय निकायों के चुनाव कराए तो पाकिस्तान मुस्लिम लीग का गठन हुआ.
लगातार इस पार्टी की ताक़त में इजाफ़ा होता गया और 1988 में देश में दो बड़ी पार्टियां बन गई. सभी चारों प्रांतों में इनके जड़ें थी. वर्ष 1988, 1990, 1993 और 1997 के चुनाव में इन दोनों पार्टियों - पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल) ने कुल 75 फ़ीसदी सीटें जीती.
मेरे विचार से देश में दो बड़ी पार्टियों का होना पाकिस्तान के लोकतंत्र के सफ़र का दूसरा अहम पड़ाव रहा.
तीसरा पड़ाव इसी साल मार्च में मुख्य न्यायाधीश इफ़्तिख़ार चौधरी की पुनर्बहाली के लिए वकीलों और आम आदमी द्वारा चलाया गया आंदोलन रहा. जिससे फ़लस्वरूप उन्हें मुख्य न्यायाधीश के पद पर बहाल कर दिया गया
साभार-बीबीसी
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