अब नही दिखेंगे रिक्शे


ये भी इंसान हैं। जी हां दरअसल जब भी ये वाक्य मुंह से निकलेगा तो ये बात ही बंया होगी, कि कोई किसी पर जुल्म की इंतिहा कर रहा है। और फिर दर्द में ये बात निकले कि अरे भाई ये भी इंसान है। आप और हम रिक्शे में तो बैठे ही होंगे। और देखा होगा कि हम थक जाने के बाद ये कहते है कि चलो रिक्शा कर लेते है। और फिर 2-3 लोग सामान सहित रिक्शे पर बैठ जाते है। और वो इंसान किस तरह आपको खीचंता है। वो किसी भी तरह मानवीय नही कहा जा सकता है। लेकिन ये होता है। आपको ये जान कर हैरानी होगी कि रिक्शे वालो को लेकर क्या पालिसी है,,क्या आप जानते है कि रिक्शा चलाने के लिये भी लाइसेंस की जरूरत पडती है। और ये लाइसेंस उनको देता है जानवरों का डाक्टर....जी हां तभी कहना पडता है कि ये भी इंसान है।
आज से 55 साल पहले एक फिल्म बनी दो बीघा जमीन....इस फिल्म पर मशहूर निर्देशक डी सिका की फिल्म ''बाईसिकिल थीफ'' की छाप थी...विमल राय ने मुंबई के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म देखी....और इसी फिल्म की तर्ज पर बनायी दो बीघा जमीन....यह फिल्म अपने दौर में शहर और गांव की बेरहमी के बीच किसान के नातमाम दर्द की ना भूलने वाली दास्तान बन गई...
दो बीघा जमीन.....आजादी के महज 6 साल बाद.... 1953 में बनी फिल्म...जब ये फिल्म बनी तो देश में पहली पांच साला योजना चल रही थी...इस योजना में जोर किसानी पर था...और विमल राय ने फिल्म भी बनायी एक किसान की जिन्दगी पर...
पश्चिम बंगाल का एक गांव....दो साल के सूखे से बंजर धरती.....पेड़ों पर गांव की गरीबी का बेपनाह सन्नाटा....इसी गांव में रहता है दो बीघे खेत का मालिक शंभू महतो...इस किसान की मेहनत को बारिश का इंतजार है...इस किसान को गांव के जमींदार की रहम का भी इंतजार है....शंभू जमींदार का कर्जदार है...शंभू की जमीन पर गांव के जमींदार की नजर है.....जमींदार शहर के ठेकेदार को अपनी जमीन बेचना चाहता है...शंभू को तीन महीने की मोहलत मिलती है....कर्ज चुकाओ या जमीन गंवाओ...जमींदार की शर्त्त साफ है....और फिर शुरू होता है एक सिलसिला...यह सिलसिला गांव के किसान के मजदूर में तब्दील होने का है...
हल चलाने वाले हाथों में अब हाथरिक्शा है....बैल के कंधे पर जुआ धरने वाले किसान इस सड़क पर खुद एक घोड़े में तब्दील हो चुका है...पीछे बैठे आदमी को हड़बड़ी है...आगे उसकी महबूबा है...वो शंभू पर सवारी गांठ रहा है...पैसे का जोर....और तेज..और तेज...और तेज.....पैसे की चाबुक शंभू की पीठ पर बेअवाज चल रही है...ये कोलकाता का पढ़ा लिखा बेरहम बाबूवर्ग है...ये शहर का नया जमींदार है...इसकी खेती कागज पर चलती है....अपने खेत बचाने के चक्कर में शंभू का सपना अचानक सड़क पर बेदम होकर गिर पड़ता है...
गांव में जमींदार और महाजन....शहर में बेरहम बाबूलोग....दो पाटों के बीच दो बीघा जमीन और इस जमीन का मालिक एक किसान परिवार...ये परिवार कोलकाता से गांव लौटता है....मगर खेत में अब फसल की जगह फैक्ट्री खड़ी है...चिमनी धुआं उगल रही है....इस परिवार का सपना खाक हो रहा है...
इस फिल्म को केन्स में अवार्ड मिला...ये विमल राय की पहली हिन्दी फिल्म थी...इसे पहले फिल्मफेयर अवार्ड में पहले बेस्ट फिल्म का अवार्ड मिला...प्रेमचंद के उपन्यासों के बाद इसी फिल्म ने पहली बार बताया...दो पाटों के बीच किसी सड़क पर किसी रिक्शे के चक्के तले इंसान की जान कैसे कुचली जाती है.
लेकिन राजधानी की सड़कों पर दौड़ते इन रिक्शों की तादाद पर लगाम कसने की तैयारी है। एमसीडी ने तय किया है कि रिक्शा चलाने की अनुमति उसी व्यक्ति को दी जाऐगी. जिसके नाम पर रिक्शा होगा. जाहिर है इस फैसले से किराये पर रिक्शा चलाने वालों का रोजगार छिन जाएगा और इससे उनके घरवालों की रोजी रोटी पर असर पड़ेगा।
एक अनुमानर को बिना किसी प्रदूषण के कायम करता नजर आता है के मुताबिक राजधानी में करीब एक लाख रिक्शों को लाइसेंस दिया गया है। लेकिन इनमें से 90 फीसदी रिक्शे ठेकेदारों के नाम पर हैं। जो किराये पर अपने रिक्शे चलवाते हैं।
दरअसल, एमसीडी के इस फैसले के पीछे सड़कों से रिक्शा हटाने की मुहिम ज्यादा दिखती है...लेकिन सवाल ये है कि जहां किसानों को करोड़ों का कर्ज माफ कर ये संदेश दिया जाता है कि सरकार किसानों की हितेषी है. वहीं, वो समाज के उस तबके की रोजीरोटी छीनने के लिए कदम उठा रही जो देश की रफ्तार के साथी है।

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