प्रसून वाजपेयी गच्छति गच्छता, गच्छंति
पुन्य प्रसून वाजपेयी चले गये...सहारा छोडकर-जिसे वो सुधारने आये थे...वो चले गये...साथ में गये उनके साथी भी, ये खबर धमाके की तरह मीडिया में फैल गयी...जाने के बाद सहारा के न्यूज रूम में एक तरह से खुशी का माहोल था, बडी तादाद में लोग इक्कठा हुये...९९ फीसदी खुश नजर आ रहे थे। उसे देखकर मन थोडा विचिलित भी हुआ, सोचा कि किसी का जाना क्या इंसान को खुशी भी दे सकता है...जबकि किसी के जाने के बाद तो मन दुखी होता है। ये सोच भिन्न है, धातक है, कुंठाओ से भरी हो सकती है....लेकिन एक सच और भी है। कि हो सकता है कि वो व्यक्ति अलग रहा हो...मेरी समझ में मैने एसे व्यक्ति बहुत कम देखे है...जिनमें उम्मीदो का सागर ढूढा गया हो। प्रसून उनमें से थे...जिस उम्मीद के साथ उनको सहारा में लाया गया था, वो गजब थी...विशाल थी...लोगो में गजब का उत्साह था। कुछ कर गुजरने का...लेकिन उम्मीदे नाउम्मीदो में कैसे तब्दील हो जाती है।।।ये प्रसून वाजपेयी ने दिखाया...किस तरह लोग अपनी भावनाओं के साथ उनके पास पंहुचे...और किस तरह उनको नेस्तनाबूत किया गया...जलील किया गया..प्रसून जी का जाना किसी साधारण इंसान का जाना नही था। ये उम्मीदो का जाना था, सपनो का मरना था...ये संभावनाओ के साक्ष्य का मिटना था...वो क्या सोच थी जो एक इंसान को दूसरे से तमीज से बात करने से रोके...ये सोच क्या थी और है। लेकिन अमानवीय है। लोग दुखी थे कि कौन सी गलती हो गयी उनसे , जो ये व्यक्ति उनसे खफा रहता है। टीम नही बन पायी...सारी प्रसून जी आप फेल रहे। आप एक बेहतरीन एंकर थे, लेकिन बेहतर इंसान नही बन पाये, या बनना नही चाहा... ये आप शायद नही जान पाये कि लीडरशिप जीत दिलाती है लीडर नही, आपको लीडर तो बना दिया गया , लेकिन लीडरशिप नही दिखा पाये आप...बहुत शिकायते हैं आप , मन था कि आप से पूछू कि ये सब क्यो.....इतनी तल्खी क्यो....इतना धमंड आखिर क्यो...॥मलाल कि आप उनको बिना सुने ही चले गये।
जिन बुतो को हो जाता है खुदा होने का कुफ्र
उन बुतो को मैने अक्सर टूटते देखा है।
जिन बुतो को हो जाता है खुदा होने का कुफ्र
उन बुतो को मैने अक्सर टूटते देखा है।
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