गीतकार बडा या साहित्यकार
रवीश कुमार पत्रकार है...नाम है,मेरा परिचय उनसे टीवी के माध्यम से ज्यादा है...उनके विशेष को जब भी देखता हू तो रूक जाता हूं...वो कहते है कि मैं बोलने को लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूं...बोलना उनका पेशा है...ये बहस का मौजू हो सकता है...लेकिन गजब के कलाकार है रवीश...क्या आपको भी ऊब होती है...भी मजेदार था, लेकिन इस लेख में ज्यादा रवानगी नजर आयी, तो उनसे इंडिया बोल में छापने का आग्रह कर बैठा...जबाब आया-ले जाओ-तो साभार पेश है...
रवीश कुमार
पुरानी बहस होगी। कई बार पुरानी बहसों पर फिर से बहस करनी चाहिए। तमाम विवाद और समीक्षाएं छप चुकने के बाद भी। आलोक पुराणिक ने वाक में लिख भी दिया है प्रसून जोशी का हिंदी की साहित्यिक मुख्यधारा में ज़िक्र नहीं होता है। लेकिन प्रसून जोशी हों या जयदीप साहनी या फिर अनुराग कश्यप। ये लोग नया गीत और गद्य रच रहे हैं। भले ही वो उपन्यास नहीं लिखते कविता नहीं लिखते। मगर जो लिख रहे हैं वो एक बेहतर उपन्यास है। बेहतर कविता है। गीतकारों की यह ऐसी पीढ़ी है जो पहले कविता लिखती है। फिर उसे गीतों में ढाल देती है। यह लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक या उनमें छपने वाले लोगों से ज़्यादा बड़े तबके से संवाद करते हैं। अब तो साहित्यकारों को भी मात दे रहे हैं। रंग दे बसंती हो या ब्लैक फ्राइडे अनुराग की लिखावट देखिये। ये लोग बाजार के साहित्यकार हैं। बीच बाज़ार में जा कर रच रहे हैं। अच्छा लिख रहे हैं। सुना रहे हैं।
ये वो पीढ़ी है जिसे देख कर लगता है बालीवुड में अब कई गुलज़ार पैदा हो गए हैं। जिनके पास तमाम वर्गों की समझ है। आबो हवा की खुश्बू पकड़ने के लिए शब्द हैं। और ज़िंदगी के आर पार से गुज़रते हुए अनुभव के तमाम लम्हों को बयां कर देने की सलाहियत भी। स्वर्ण युग की अवधारणा कहां से आती है इस पर शोध फिर कभी। लेकिन इनकी वजह से बंबईया फिल्मों में स्वर्ण युग आ गया है। चक दे का गाना जयदीप साहनी ने लिखा है। मौला मेरे ले ले मेरी जान। इस गीत में जयदीप साहनी ने रंग और त्योहार के बहाने राजनीतिक टिप्पणी की है। खूबसूरती के साथ और खुल कर। इस गीत की चंद पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए-
तीजा तेरा रंग था मैं तो
जीया तेरे ढंग से मैं तो
तू ही था मौला तू ही आन
मौला मेरे ले ले मेरी जान
तारे ज़मीन के सभी गीत किसी कवि के लिखे लगते हैं। इसीलिए प्रसून जोशी कवि लगते हैं। बल्कि वो हैं। उनके बारे में सब जानते हैं। सब लिख चुके हैं। इसलिए मैं कम लिखूंगा। आप ज़रा ग़ौर कीजिए
(1)
तू धूप है झम से बिखर
तू है नदी ओ बेख़बर
बह चल कहीं उड़ चल कहीं
दिल खुश जहां
तेरी तो मंज़िल है वहीं
(२)
मां मैं कभी बतलाता नहीं
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां
यू तो मैं,दिखलाता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है न मां
तुझे सब है पता मेरी मां
सईद क़ादरी का लिखा लाइफ इन ए मेट्रो का गाना-
इन दिनों दिल मेरा
मुझसे है कह रहा
तू ख्वाब सजा
तू जी ले ज़रा है
तुझे भी इजाज़त कर ले
तू भी मोहब्बत
बेरंग सी है बड़ी ज़िंदगी
कुछ रंग तो भरूं
मैं अपनी तन्हाई के वास्ते
अब कुछ तो करूं
बंटी बबली के इस गाने के बोल पर ग़ौर कीजिए-
देखना मेरे सर से आसमां उड़ गया है
देखना आसमां के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से
देखना क्या हुआ है
यह ज़मी बह रही है देखना पानियों में ज़मी घुल रही है
कहीं से।
ये सब चंद गीत हैं जब बजते हैं तो लगता है इन्हें लिखने वाले ने मंगलेश डबराल, केदार नाथ सिंह,अरुण कमल को पढ़ा होगा। इन्हीं के बीच का होगा। जो अनुभूतियों को बड़े स्तर पर रच रहे हैं। जिनके बोल गुनगुनाने के लिए ही नहीं बल्कि नया मानस बनाने के लिए भी हैं। बल्कि बना भी रहे हैं। आलोक पुराणिक ठीक कहते हैं हिंदी साहित्य में इसकी चर्चा क्यों नहीं। क्यों नहीं प्रसून जोशी और जयदीप साहनी पर नामवर सिंह जैसे आलोचक लिखते हैं? आखिर इनकी रचनाओं में कविता के प्रतिमान क्यों नहीं है? क्या साहित्यकार बाज़ार में नहीं है? क्या उसने बाज़ार की मदद से अपनी रचनाओं का प्रसार नहीं किया? सवाल गीत को कविता से अलग करने का नहीं है। सवाल है कि हम इन्हें क्या मानते हैं? अगर थोड़ा भी रचनाकार मानते हैं तो जयदीप साहनी को युवा कवि का पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? प्रसून जोशी को साहित्य अकादमी क्यों नहीं दिया जा सकता?
यह हिंदी समाज का अपना मसला है। हर समाज में खाप और उनकी पंचायत होती है। हिंदी की भी है। लेकिन इस खाप से बाहर बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील वक्त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। कम से कम इसे स्वीकार करने का साहस तो दिखाना ही चाहिए।
पुरानी बहस होगी। कई बार पुरानी बहसों पर फिर से बहस करनी चाहिए। तमाम विवाद और समीक्षाएं छप चुकने के बाद भी। आलोक पुराणिक ने वाक में लिख भी दिया है प्रसून जोशी का हिंदी की साहित्यिक मुख्यधारा में ज़िक्र नहीं होता है। लेकिन प्रसून जोशी हों या जयदीप साहनी या फिर अनुराग कश्यप। ये लोग नया गीत और गद्य रच रहे हैं। भले ही वो उपन्यास नहीं लिखते कविता नहीं लिखते। मगर जो लिख रहे हैं वो एक बेहतर उपन्यास है। बेहतर कविता है। गीतकारों की यह ऐसी पीढ़ी है जो पहले कविता लिखती है। फिर उसे गीतों में ढाल देती है। यह लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक या उनमें छपने वाले लोगों से ज़्यादा बड़े तबके से संवाद करते हैं। अब तो साहित्यकारों को भी मात दे रहे हैं। रंग दे बसंती हो या ब्लैक फ्राइडे अनुराग की लिखावट देखिये। ये लोग बाजार के साहित्यकार हैं। बीच बाज़ार में जा कर रच रहे हैं। अच्छा लिख रहे हैं। सुना रहे हैं।
ये वो पीढ़ी है जिसे देख कर लगता है बालीवुड में अब कई गुलज़ार पैदा हो गए हैं। जिनके पास तमाम वर्गों की समझ है। आबो हवा की खुश्बू पकड़ने के लिए शब्द हैं। और ज़िंदगी के आर पार से गुज़रते हुए अनुभव के तमाम लम्हों को बयां कर देने की सलाहियत भी। स्वर्ण युग की अवधारणा कहां से आती है इस पर शोध फिर कभी। लेकिन इनकी वजह से बंबईया फिल्मों में स्वर्ण युग आ गया है। चक दे का गाना जयदीप साहनी ने लिखा है। मौला मेरे ले ले मेरी जान। इस गीत में जयदीप साहनी ने रंग और त्योहार के बहाने राजनीतिक टिप्पणी की है। खूबसूरती के साथ और खुल कर। इस गीत की चंद पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए-
तीजा तेरा रंग था मैं तो
जीया तेरे ढंग से मैं तो
तू ही था मौला तू ही आन
मौला मेरे ले ले मेरी जान
तारे ज़मीन के सभी गीत किसी कवि के लिखे लगते हैं। इसीलिए प्रसून जोशी कवि लगते हैं। बल्कि वो हैं। उनके बारे में सब जानते हैं। सब लिख चुके हैं। इसलिए मैं कम लिखूंगा। आप ज़रा ग़ौर कीजिए
(1)
तू धूप है झम से बिखर
तू है नदी ओ बेख़बर
बह चल कहीं उड़ चल कहीं
दिल खुश जहां
तेरी तो मंज़िल है वहीं
(२)
मां मैं कभी बतलाता नहीं
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां
यू तो मैं,दिखलाता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है न मां
तुझे सब है पता मेरी मां
सईद क़ादरी का लिखा लाइफ इन ए मेट्रो का गाना-
इन दिनों दिल मेरा
मुझसे है कह रहा
तू ख्वाब सजा
तू जी ले ज़रा है
तुझे भी इजाज़त कर ले
तू भी मोहब्बत
बेरंग सी है बड़ी ज़िंदगी
कुछ रंग तो भरूं
मैं अपनी तन्हाई के वास्ते
अब कुछ तो करूं
बंटी बबली के इस गाने के बोल पर ग़ौर कीजिए-
देखना मेरे सर से आसमां उड़ गया है
देखना आसमां के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से
देखना क्या हुआ है
यह ज़मी बह रही है देखना पानियों में ज़मी घुल रही है
कहीं से।
ये सब चंद गीत हैं जब बजते हैं तो लगता है इन्हें लिखने वाले ने मंगलेश डबराल, केदार नाथ सिंह,अरुण कमल को पढ़ा होगा। इन्हीं के बीच का होगा। जो अनुभूतियों को बड़े स्तर पर रच रहे हैं। जिनके बोल गुनगुनाने के लिए ही नहीं बल्कि नया मानस बनाने के लिए भी हैं। बल्कि बना भी रहे हैं। आलोक पुराणिक ठीक कहते हैं हिंदी साहित्य में इसकी चर्चा क्यों नहीं। क्यों नहीं प्रसून जोशी और जयदीप साहनी पर नामवर सिंह जैसे आलोचक लिखते हैं? आखिर इनकी रचनाओं में कविता के प्रतिमान क्यों नहीं है? क्या साहित्यकार बाज़ार में नहीं है? क्या उसने बाज़ार की मदद से अपनी रचनाओं का प्रसार नहीं किया? सवाल गीत को कविता से अलग करने का नहीं है। सवाल है कि हम इन्हें क्या मानते हैं? अगर थोड़ा भी रचनाकार मानते हैं तो जयदीप साहनी को युवा कवि का पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? प्रसून जोशी को साहित्य अकादमी क्यों नहीं दिया जा सकता?
यह हिंदी समाज का अपना मसला है। हर समाज में खाप और उनकी पंचायत होती है। हिंदी की भी है। लेकिन इस खाप से बाहर बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील वक्त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। कम से कम इसे स्वीकार करने का साहस तो दिखाना ही चाहिए।
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