दीवान-ए-गालिब हमारे प्रधानमंत्री
कहते हैं कि अंग्रेजों के आने के बाद से लेकर अब तक भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा शायर है --- गालिब। गालिब की शायरी यानि जिंदगी की कशमकश और जद्दोजहद की शायरी। जो परवान तो चढ़ती है रवायतों के बीच लेकिन दुनिया को नई नजर से देखने का हुनर पैदा कर लेती है। तभी हमारे प्रधानमंत्री भी दीवान-ए-गालिब हैं। हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे...कहते हैं ग़ालिब का अंदाज़ें बयां और...सही बात है...मिर्जा गालिब की शायरी नज्मों का क्या मुकाबला....इसके दीवानों की कमी नहीं हैं...कुछ ऐसी ही शेरो-शायरी के बीच आज कल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दिन गुजर रहे हैं... हर वक्त व्यवस्त रहने वाले प्रधानमंत्री के पास अब फुरसत के लमहे ही लमहे हैं। लिहाजा गालिब की गजलों के साये में वो सुकून महसूस कर रहे हैं। शेरो-शायरी से अपना दिल बहला रहे हैं.... प्रधानमंत्री दिल की बायपास सर्जरी से गुजरे हैं ....डॉक्टरों ने तो अपना काम खत्म कर दिया ....और उन्हें पूरी तरह से आराम की सलाह दे दी .....लेकिन कुछ तो ऐसा होना चाहिए जो उनके दिल की धड़कनों सुर और ताल दे...इसके लिए गालिब की गजलों से बढ़कर औऱ क्या हो सकता है....जो दिल को छू लेती हैं....और दिल में गहरे उतर जाती हैं । कुछ दिन पहले ही एक शख्स ने प्रधानमंत्री को गालिब के गजलों की एक सीडी भेंट की थी....वक्त भी था और तकाजा भी... ऐसे में प्रधानमंत्री का खाली वक्त उन गजलों को सुनने में बीतने लगा ....कमरे में धीमी आवाज में वो गालिब की गजलों का आनंद लेते हैं...... (गालिब की गजल लगाएं....) राजनीति का एक दमदार चेहरा....एक मशहूर अर्थशास्त्री....देश की बागडोर संभालने वाली शख्सियत...लेकिन इतना कुछ होने के बावजूद एक आम इंसान.... और एक आम इंसान की तरह नाजुक सा दिल रखने वाला शख्स....तभी तो वो बीमारी की हालत में भी आम लोगों के बारे में सोचता है....उनकी मुश्किलों के बारे में विचार करता है....और अपने ऑपरेशन के कुछ देर बाद ही सबसे पहले कहता है कि मुझे जो सुविधा ऑपरेशन के दौरान मिली....वो सभी को मिले.....उस इंसान के दिल में आम आदमी वाला दर्द है....और जिसे दर्द का ऐसा अहसास होगा....जिसका दिला इतना नाजुक होगा वो भला गालिब की गजलों को कैसे पसंद नहीं करता...प्रधानमंत्री को पहले भी गालिब की गजलें और नज्में पढ़ने का शौक रहा है.... बंटवारे से पहले के पाकिस्तान में जन्मे इस शख्सियत ने उस पीढ़ी को देखा औऱ सुना है...जिसमें गालिब की कहानी शुरू हुई थी अठारहवीं सदी के आखिरी दौर में। शहर था अकबराबाद यानि आगरा, साल 1797 और तारीख 27 दिसंबर। तलवार के धनी अब्दुल्ला बेग खां के घर असद का जन्म हुआ। दादा और नाना के पास जागीरें थीं यानि रईसी खून में थी पर पांच बरस की उम्र में पिता का साया उठ गया। चाचा नसरुल्ला बेग ने जिम्मेदारी उठाई तो फकत चार बरस। असद नौ बरस का था कि उनका भी इंतकाल हो गया। यानि तंगहाली से याराना लड़कपन में ही हो गया। बहरहाल, 13 बरस के होते-होते दिल्ली के इलाहीबख्श की बेटी उमराव बेगम से असद का निकाह हो गया और वो दिल्ली पहुंच गया। 15 बरस की उम्र में शायरी से लौ लग गई और जल्दी ही दिल्ली के शायरों की फेहरिस्त में एक नया नाम जुड़ गया--गालिब। पुरानी कहावत है...जमाने के शाह अपनी कब्रों में दफन हो जाते हैं मगर जमाने के शायर अपने दीवानों में जिन्दा रहते हैं...गालिब के वक्त के शाह गुजर गए लेकिन गालिब बरसों पहले गुजरने के बावजूद अपने लफ्जों में जिन्दा है और गालिब के लफ्जों में जिन्दा है गालिब का ना खत्म होने वाला सवाल---कि आखिर तू क्या है...और तेरी हस्ती क्या है... मिर्जा असदुल्ला खां गालिब....एक चिराग सिपाहसालारों के खानदान का...मगर गालिब ने तलवार नहीं कलम उठायी...और गालिब उस खून के कायल नहीं हुए जो रगों में दौड़ता फिरता है...गालिब कायल थे उस लहू के जो आंख से आंसू बनकर टपकता है... (रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं कायल...बजाएं जगजीत की आवाज) मिर्जा गालिब....इस नाम से पूछो तो विरासत में पूरे तुर्की साम्राज्य का पता चलता है...मगर इस शख्स के कलाम से पूछो तो उसमें ठेठ हिन्दुस्तानी का दिल धड़कता है....और सारी उम्र अपने से...अपने कलाम के चाहने वालों से गालिब का सवाल यही रहा---कि आखिर आदम जात की हस्ती क्या है...गालिब सयानों से पूछते थे... ना था कुछ तो खुदा था...कुछ ना होता तो खुदा होता...डुबोया मुझको होने ने...ना होता मैं तो क्या होता.... और गालिब अपने वक्त के शाहों से पूछते थे... हरेक बात पे पूछते हो कि तू क्या है...तुम्हीं कहो की ये अंदाजे गुफ्तगू क्या है... साहस अपने वक्त के सयानों को टोकने का....साहस..अपने वक्त के शाहों को टोकने का...और साहस...अपने वक्त के दीन और इमान के ठेकेदारों को टोकने का.... गजल बजा लें..जगजीत सिंह की आवाज) कहां मयखाने का दरवाजा और कहां वाइज...पर इतना जानते हैं कि कल वो जाता था कि हम निकले... गालिब ने शाह पर तंज कसे....शाह के निजाम पर तंज कसे....गालिब ने वाइज फरमान को टोका...और टोका उस रवायत को जो मिट्टी के आदमी का फैसला आग की कलम से करवाती है... पकड़े जाते हैं फरिश्तों के लिखे पर नाहक...आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था। फिक्स आऊट) अपने अपने असूलों पर चलने वाली दुनिया....अपने अपने असूलों पर लड़ने वाली दुनिया...और एक दूसरे को अपने पंजों और नाखूनों से घायल करने वाली इस दुनिया से गालिब की शिकायत कि.... हम भी मुंह में जबान रखते हैं...काश पूछो कि मुद्आ क्या है (ग्राफिक्स आऊट) मिर्जा गालिब का कलाम कहता है...शायर हमसे मुद्दे की बात कहता है...और इसलिए शाह चाहे मर जाएं मगर शायर जिन्दा रहता है... उर्दू की तहजीब सांस लेती थी....और इसका उनपर पूरा प्रभाव पड़ा है..... पुरानी दिल्ली की गलियों से बापरवाह गुजरने पर सुनाई देती है तहजीब और तवारीख की घुटती आहें...इन आहों में सौ साला उम्मीद के किस्से हैं। इन किस्सों में एक हवेली है...और हवेली में है वही पुरसोज आवाज..जो कहा करती थी...अगले जमाने में कोई मीर भी था। एक गली यादों की...एक गली पुरानी दिल्ली की....तेजी से भागती है दिल्ली...और भागती हुई दिल्ली में अगर कुछ ठहरा रहता है तो इन गलियों का पुरानापन...कभी इन गलियों में गजलें गुलजार थीं...कुछ जज्बात टहलते थे हया की चादर ओढ़कर...पांव इस अंदाज में उठते थे मानो सोये हुए सितार को किसी ने पहली बार छेड़ा हो...इन गलियों की शान में एक दिवानगी गुनगुनाती थी-- दिल्ली के ना थे कूचे...औराक मुसव्विर थे...जो शक्ल नजर आई तस्वीर नजर आयी... सैकड़ों सालों की तवारीख समेटने वाली पुरानी दिल्ली में अब भी आबाद है एक गली कासिम जान....अब भी आबाद है वो हवेली जिसका दस्तखत हिन्दुस्तान की हर मीठी जबान पर है...जिन्दगी के आखिरी दिनों में इस हवेली से सन् सत्तावन की खूंरेजी को देखने वाले गालिब...पुरानी तहजीब की सिसकी के बीच नई तहजीब को करवट लेते द्खने वाले मिर्जा असदुल्लाह खां गालिब....उस उजड़ती दिल्ली में जार जार रोयी थी गालिब की कलम..एक बेजार रुह थरथरायी थी इस हवेली में--- रगों में दौड़न फिरने के हम नहीं कायल...जो आंख ही से ना टपके तो फिर लहू क्या है...
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अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति