लैट्स प्ले निंदा-निंदा
नीरज बधवार
भारत जैसे देश में आम आदमी के लिए निंदा से सस्ता मनोरंजन कोई नहीं है। निंदा एक ऐसा खेल है जो हमेशा 'डबल्स' में खेला जाता है। इसलिए ज़रुरी है कि पहले अच्छा पार्टनर ढूंढ लें। ऐसा शख्स.. जिसके मन में उतना ही ज़हर हो जितना कि आपके मन में है। इससे 'मोमन्टम' बनता है। निंदा वैसे तो कई विषयों पर की जा सकती है। लेकिन इंसानी निंदा सबसे रसीली होती है।एक अच्छे निन्दक के लिए ज़रुरी है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से दोस्ती करें। जितना बड़ा उसका दायरा होगा। उतने ही ज़्यादा आप्शंस उसके पास रहेंगे। अक्सर देखने में आता है कि दो-चार लोगों की बुराई करते करते बोरियत होने लगती है। इसलिये ज़रुरी है कि दस-पंद्रह लोगों से नज़दीकी बढ़ायी जाये। पार्टनर के साथ निंदा करने से पहले एक लिस्ट बना लें। जिसकी निंदा होती जाये उसके नाम के आगे टिक लगा ले। ऐसा करने से रिपिटेशन से बचेंगें।निंदा के दौरान जिसे भी आप निपटा रहे हैं, उसका असली नाम कभी न लें। अपनी क्रिएटिविटी और गालियों के जैसे संस्कार आप में है, उसके हिसाब से उसे एक 'उपनाम' दें। ऐसा करना से निंदा का मज़ा दोगुना हो जाता है और ज़रुरी पंच भी मिल जाता है।सिर्फ बुरे आदमी की निंदा न करें। ऐसा कर आप 'सेफ' खेलेंगें। जिसकी सारी दुनिया बुराई कर रही है, उसकी बुराई कर 'निंदा साहित्य' में आप अमर योगदान नहीं दे पायेंगें। ऐसे लोगों की बुराई करें जो 'भले आदमी' के तौर पर बदनाम हैं। ऐसा करना चैलेंजिंग हैं।मसलन...कोई आदमी काम करने में अच्छा है, लेकिन कम बोलता है। तो आप कहिये साला अक्कडू है... पता नहीं खुद को क्या समझता है। कोई आदमी बहुत लम्बा है, और आपको उसकी हाईट से जैलिसि है, तो कहिये साला ऊंट, कोई आदमी वैल मैनर्ड है और आप शर्मींदा होते हैं कि आप इतने तमीज़दार नहीं हैं ....तो कहिये साला कांइयां हैं। ऐसा कर आप एक भले आदमी की इमेज तो स्पायल करेंगे ही, अपनी हीनता पर भी विजय पा लेंगें।नैतिकता के मुद्दे पर कभी किसी की निंदा न करें। ऐसे वक़्त आप प्रगतिशील बन जायें। कोई आदमी शादी के बाद किसी से सम्बन्ध रखता है तो फौरन कहिये...यार ये उसकी मर्जी है....हमें 'इन्डिविज्यूल फ्रीडम' की रिस्पेक्ट करनी चाहिये। उस आदमी की जगह खुद को रखिये, खुद-ब-खुद उसके बचाव में दलीलें मिलती जायेंगी!एक अच्छे निन्दक की ख़ासियत ये है कि उसे खुद नहीं पता होना चाहिये कि वो किस विचारधारा का हिमायती है। ध्यान रखिये आपका काम निन्दा करना है। बखिया उधेडना है। सही-गलत के चक्कर में पड़ेंगें तो इस खेल का पूरा मज़ा नहीं ले पायेंगें। निन्दा करने का जोश कभी ढीला न पड़े.....इसलिये ज़रुरी है कि हमेशा खुद को समझाते रहें कि जो आप डिज़र्व करते हैं, वो आपको मिला नहीं।और अंत में निन्दक ध्यान रखे... आलोचना और निंदा में फर्क होता है। आलोचना में तर्क होता है, सामने वाले की बेहतरी की इच्छा होती है। लेकिन निंदा में ऐसा कुछ नहीं। निंदा का मतलब है सामने वाले को सिरे से खारिज़ करना। मतलब....साला घटिया आदमी है।
(दैनिक हिंदुस्तान, 19 दिसम्बर, 2006)
भारत जैसे देश में आम आदमी के लिए निंदा से सस्ता मनोरंजन कोई नहीं है। निंदा एक ऐसा खेल है जो हमेशा 'डबल्स' में खेला जाता है। इसलिए ज़रुरी है कि पहले अच्छा पार्टनर ढूंढ लें। ऐसा शख्स.. जिसके मन में उतना ही ज़हर हो जितना कि आपके मन में है। इससे 'मोमन्टम' बनता है। निंदा वैसे तो कई विषयों पर की जा सकती है। लेकिन इंसानी निंदा सबसे रसीली होती है।एक अच्छे निन्दक के लिए ज़रुरी है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों से दोस्ती करें। जितना बड़ा उसका दायरा होगा। उतने ही ज़्यादा आप्शंस उसके पास रहेंगे। अक्सर देखने में आता है कि दो-चार लोगों की बुराई करते करते बोरियत होने लगती है। इसलिये ज़रुरी है कि दस-पंद्रह लोगों से नज़दीकी बढ़ायी जाये। पार्टनर के साथ निंदा करने से पहले एक लिस्ट बना लें। जिसकी निंदा होती जाये उसके नाम के आगे टिक लगा ले। ऐसा करने से रिपिटेशन से बचेंगें।निंदा के दौरान जिसे भी आप निपटा रहे हैं, उसका असली नाम कभी न लें। अपनी क्रिएटिविटी और गालियों के जैसे संस्कार आप में है, उसके हिसाब से उसे एक 'उपनाम' दें। ऐसा करना से निंदा का मज़ा दोगुना हो जाता है और ज़रुरी पंच भी मिल जाता है।सिर्फ बुरे आदमी की निंदा न करें। ऐसा कर आप 'सेफ' खेलेंगें। जिसकी सारी दुनिया बुराई कर रही है, उसकी बुराई कर 'निंदा साहित्य' में आप अमर योगदान नहीं दे पायेंगें। ऐसे लोगों की बुराई करें जो 'भले आदमी' के तौर पर बदनाम हैं। ऐसा करना चैलेंजिंग हैं।मसलन...कोई आदमी काम करने में अच्छा है, लेकिन कम बोलता है। तो आप कहिये साला अक्कडू है... पता नहीं खुद को क्या समझता है। कोई आदमी बहुत लम्बा है, और आपको उसकी हाईट से जैलिसि है, तो कहिये साला ऊंट, कोई आदमी वैल मैनर्ड है और आप शर्मींदा होते हैं कि आप इतने तमीज़दार नहीं हैं ....तो कहिये साला कांइयां हैं। ऐसा कर आप एक भले आदमी की इमेज तो स्पायल करेंगे ही, अपनी हीनता पर भी विजय पा लेंगें।नैतिकता के मुद्दे पर कभी किसी की निंदा न करें। ऐसे वक़्त आप प्रगतिशील बन जायें। कोई आदमी शादी के बाद किसी से सम्बन्ध रखता है तो फौरन कहिये...यार ये उसकी मर्जी है....हमें 'इन्डिविज्यूल फ्रीडम' की रिस्पेक्ट करनी चाहिये। उस आदमी की जगह खुद को रखिये, खुद-ब-खुद उसके बचाव में दलीलें मिलती जायेंगी!एक अच्छे निन्दक की ख़ासियत ये है कि उसे खुद नहीं पता होना चाहिये कि वो किस विचारधारा का हिमायती है। ध्यान रखिये आपका काम निन्दा करना है। बखिया उधेडना है। सही-गलत के चक्कर में पड़ेंगें तो इस खेल का पूरा मज़ा नहीं ले पायेंगें। निन्दा करने का जोश कभी ढीला न पड़े.....इसलिये ज़रुरी है कि हमेशा खुद को समझाते रहें कि जो आप डिज़र्व करते हैं, वो आपको मिला नहीं।और अंत में निन्दक ध्यान रखे... आलोचना और निंदा में फर्क होता है। आलोचना में तर्क होता है, सामने वाले की बेहतरी की इच्छा होती है। लेकिन निंदा में ऐसा कुछ नहीं। निंदा का मतलब है सामने वाले को सिरे से खारिज़ करना। मतलब....साला घटिया आदमी है।
(दैनिक हिंदुस्तान, 19 दिसम्बर, 2006)
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