राहुल बाबा-अच्छा किया, लगे रहिये
राजनेताओ से हमदर्दी कम ही होती है, लेकिन राहुल गांधी के हाल के इटावा दौरे ने ध्यान खीचां, तो सोचा कि लिखा जाये- हुआ यूं कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पहुंचे इटावा के अमीनाबाद में...दलितों को मरहम लगाने...उनका हाल-चाल पूछने...दलितों से उनका दुख-दर्द बांटने का अंदाज सबको छू गया...वो बिल्कुल ठेठ गवई अंदाज में दलितों से मिले...और अंदाज बिल्कुल दोस्ताना था...सबने यही कहा...राहुल ने दिल से लगाया मरहम ...इस गांव में पिछले गुरुवार को एक दलित परिवार पर कहर टूटा...परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी गई....परिवार की चार नाबालिग बच्चियां अब अनाथ हैं....।
दर्द से कराहते इस परिवार के घाव पर मरहम लगाने के लिए पहले सूबे की मुख्यमंत्री मायावती पहुंचीं....तो एक दिन बाद पहुंचे नेहरु-गांधी खानदान के राहुल गांधी....लेकिन वहशत के शिकार हुए इस परिवार के घाव पर मरहम रखने का दोनों का अंदाज अलग रहा....।
दलितों की मसीहाई का दावा करने वाली मायावती आयीं...उनके आने का अंदाज अफसराना रहा....मायावती गांव में मुख्यमंत्री बनकर आयीं....लोगों ने देखा कि मायावती परिवार के लोगों को धीरज बंधाने के बजाय अफसरों के अमले से मुखातिब हैं....वो दया करने आयीं थी...मुआवजे की घोषणा करके चलीं गईं...
मायावती के पहुंचने के एक दिन बाद पहुंचे राहुल गांधी...आए तो राहुल भी हेलिकाप्टर से....लेकिन गांव में पहुंचे तो अंदाज गंवई था....दुख के मारे परिवार को इज्जत देने की कोशिश ऐसी कि राहुल ने जूते बाहर उतारे तब जाकर पांव घर के अंदर रखा....घर में राहुल ने आधा घंटा बिताया....बाहर निकले तो पिछलग्गुओं की भीड़ हाथ खोले तैयार थी...लेकिन कैमरे की आंख ने देखा कि राहुल ने जूते के तस्मे खुद बांधे....कोई एलान नहीं...लोगों की जमघट के बीच नेतानुमा कोई भाषण नहीं...राहुल दुख बांटने आए थे और सांत्वना देते रहे....अड़ोस-पड़ोस....मिलने और देखने के लिए आए लोगों के साथ राहुल का अंदाज अफसराना नहीं दोस्ताना था... फिर अचानक जिस अंदाज मे उन्होने एक बच्ची को कंधे पर उठाया, वो काबिले गौर था..।चाहे यह राहुल की हमदर्दी हो या मायावती की सिय़ासत की नैतिक काट....लेकिन राहुल के कंधे पर बैठी बच्ची की तस्वीर यह जरुर बयान करती है कि राहुल आए, तो नेता और जनता का अंतर खत्म हुआ....
राहुल इससे पहले जनवरी के आखिरी हफ्ते में इसी अंदाज के साथ एक गांव जवाहिर सिंह का पुरवा में आए थे....तब भी अंदाज यही था...दलित की मड़ैया में तब राहुल ने रोटी खायी और लोगों ने कहा....राम ने शबरी के बेर खाए....राहुल ने एक बार कहा था, कि कम अनुभव मेरी सबसे बडी कमजोरी है, लेकिन लगता ये है कि ये कम अनुभव दिल को छू रहा है।
राहुल का यह अंदाज अगर हिन्दुस्तान में एक बार फिर नैतिक राजनीति की शुरुआत की सुगबुगाहट है...तो इसका स्वागत किया जा सकता है...।
दर्द से कराहते इस परिवार के घाव पर मरहम लगाने के लिए पहले सूबे की मुख्यमंत्री मायावती पहुंचीं....तो एक दिन बाद पहुंचे नेहरु-गांधी खानदान के राहुल गांधी....लेकिन वहशत के शिकार हुए इस परिवार के घाव पर मरहम रखने का दोनों का अंदाज अलग रहा....।
दलितों की मसीहाई का दावा करने वाली मायावती आयीं...उनके आने का अंदाज अफसराना रहा....मायावती गांव में मुख्यमंत्री बनकर आयीं....लोगों ने देखा कि मायावती परिवार के लोगों को धीरज बंधाने के बजाय अफसरों के अमले से मुखातिब हैं....वो दया करने आयीं थी...मुआवजे की घोषणा करके चलीं गईं...
मायावती के पहुंचने के एक दिन बाद पहुंचे राहुल गांधी...आए तो राहुल भी हेलिकाप्टर से....लेकिन गांव में पहुंचे तो अंदाज गंवई था....दुख के मारे परिवार को इज्जत देने की कोशिश ऐसी कि राहुल ने जूते बाहर उतारे तब जाकर पांव घर के अंदर रखा....घर में राहुल ने आधा घंटा बिताया....बाहर निकले तो पिछलग्गुओं की भीड़ हाथ खोले तैयार थी...लेकिन कैमरे की आंख ने देखा कि राहुल ने जूते के तस्मे खुद बांधे....कोई एलान नहीं...लोगों की जमघट के बीच नेतानुमा कोई भाषण नहीं...राहुल दुख बांटने आए थे और सांत्वना देते रहे....अड़ोस-पड़ोस....मिलने और देखने के लिए आए लोगों के साथ राहुल का अंदाज अफसराना नहीं दोस्ताना था... फिर अचानक जिस अंदाज मे उन्होने एक बच्ची को कंधे पर उठाया, वो काबिले गौर था..।चाहे यह राहुल की हमदर्दी हो या मायावती की सिय़ासत की नैतिक काट....लेकिन राहुल के कंधे पर बैठी बच्ची की तस्वीर यह जरुर बयान करती है कि राहुल आए, तो नेता और जनता का अंतर खत्म हुआ....
राहुल इससे पहले जनवरी के आखिरी हफ्ते में इसी अंदाज के साथ एक गांव जवाहिर सिंह का पुरवा में आए थे....तब भी अंदाज यही था...दलित की मड़ैया में तब राहुल ने रोटी खायी और लोगों ने कहा....राम ने शबरी के बेर खाए....राहुल ने एक बार कहा था, कि कम अनुभव मेरी सबसे बडी कमजोरी है, लेकिन लगता ये है कि ये कम अनुभव दिल को छू रहा है।
राहुल का यह अंदाज अगर हिन्दुस्तान में एक बार फिर नैतिक राजनीति की शुरुआत की सुगबुगाहट है...तो इसका स्वागत किया जा सकता है...।
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