आज बिरज में होरी रे रसिया



ब्रज की होली में नंदगांव, बरसाना, गोकुल की होली की बात ज्यादा होती आयी है। और उसमें भी लठ्ठमार होली विश्व प्रसिद्ध है। लेकिन सिर्फ ये ही नही है ब्रज में। मथुरा व्रदांवन गोवर्धन नंदगाव बरसाना पर्यटको के लिये पसंदीदा रहे है। लेकिन रंग और भी है मथुरा या फिर ब्रज की होली में । वो चाहे आम होली हो, मंदिरो में टेसू के फूलो से होली हो , या फिर लठ्ठामार, या फिर दाउजी का हुरंगा या कपडा फाड होली हो, कोसींकला के पास फालेन की जलती होली मे से पंडा का निकलना हो, ये सब इसे एक अलग पहचान देते है। मेरा बचपन मथुरा में बीता और अपने भाई बहन के साथ साथ दोस्तो के बीच होली का त्योहार हमेशा से अलग होता रहा। ब्रज में होली की आहट वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती है। और मंदिरो में गुलाल और टेसू के फूलो का पानी पडने लगता है। आप सुबह सुबह द्वारिकाधीश मंदिर या फिर क्रष्ण जन्म स्थान पर चले जाइये । फागुन गाते हुरियारे या कहें तो चौबे आपको मिल जायेंगे। लेकिन सुबह सुबह की मंगला आरती पर अपनी दादी और मम्मी को भीगते आते देखना एक रिवायत थी। ये हम बच्चो के लिये एक सूचना होती थी कि संभल जाओ। घर में पुराने कपडे निकलना शुरू हो जाते थे। नये कपडे पहनने पर डांट पडती थी। उसके बाद ये प्रक्रिया महीने भर चलती थी। बदलाव एक नियम है। और शहर की सोच में बदलाव तब भी आना शुरू हो गया था। चौक, छत्ता बाजार, धीया मंडी, होली गेट या फिर घाट का इलाका , जिसमे गऊघाट से लेकर बंगाली धाट तक का इलाका पुराने शहर में आता था। और ये ही होली के रंग में ज्यादा रंगा होता था। इन इलाको में जाने वाले ये मन बनाकर जाते थे कि रंग पड सकता है। लेकिन डैंपियर नगर, क्रष्णा नगर, या फिर …क़ॉलानी वो इलाके थे, जो नये थे और जंहा कॉलानी कल्चर आने लगा था। और यंहा होली देर से शुरू होती थी। हम लोग भी दोस्तो के साथ धीरे धीरे रंग में आते थे। और माहौल देखकर रंग भी बदलते थे। बाहर से आये दिखने वासे संभ्रात लोग जो पंडो और चौबो से ठगे होते थे उनके सामने चौबो को गाली देते थे। लेकिन चतुर्वेदीयो के साथ आते ही उनके साथ हो लेते थे। बहुत से दोस्त चतुर्वेदी थे और आज भी है। इस कौम के बारे में बताना लाजमी भी है। मथुरा के चौबो को पाई मांगा अक्सर कहा जाता है। जिस पर ये भडक उठते है। लेकिन सच्चाई ये भी है कि बहुत से चौबे पंडा गिरी कर के ही अपनी रोजी रोटी चला रहे है। लेकिन बेहद विद्धान, रंग रूप मे आकर्षक और बोलने की गजब की कला के धनी। मुझे लगता है कि बंटी और बबली में बंटी का करैक्टर शाजिद ने मथुरा के चौबो को ही ध्यान में रखकर लिखा होगा। अपने जीवन में एक चीज और जो मैने अनुभव की, वो है जन्मजात गुणो के आधार पर पेशा अपनाना। मेरा ये पक्का मानना है कि यदि मथुरा के चतुर्वेदीयो को अंग्रेजी पढा दी जाये ,तो ये लोग मार्केटिंग मे कमाल कर देंगे। खैर ये थोडा परिचय इस बेहद अहम और मथुरा की अहम पहचान का। होली का रंग भी सबसे पहले इन्ही पर चढता है। होली से एक दिन पहले यानि की छोटी होली वाले दिन पुराने शहर में एक जुलूस निकाला जाता है।। जिसमें बडी तादाद में लोग हिस्सा लेते है। ये जुलूस यमुना के धाट से शूरू होकर होली गेट, कोतवाली रोड होते हुये, भरतपुर गेट और फिर धीया मंडी , चौक, डोरी बाजार और अस्कुंडा धाट, द्वारिका धीश मंदिर जाता है। और इस दौरान लोग साथ चलते है। गाडियो, जिसमे एक जमाने में बैल गाडिया होती थी, लेकिन आजकल मोटर वाहन है। इन वाहनो में रंगो , गुलालो से भरी बोरियां होती थी। उपर से छज्जो और छतो पर खडे लोग भी गुलाल और रंग डाला करते थे। इस जुलूस में शहर के कुछ संभ्रांत लोग भी हुआ करते थे। इस जुलूस की जबरदस्त धूम रहती थी। और सभी लोग बेसब्री से इसका इंतजार करते थे। और इस जुलूस के खत्म होते होते होलिका दहन का समय भी हो जाता था. लोग अपने अपने घरो मे चले जाते है। लेकिन ये होलिका दहन वाली रात पूरे हुडदंग वाली रात होती है। लोग भांग और शराब के नशे में रात से ही डूब जाते है। और फिर सुबह से ही शुरू हो जाता था मस्ती हुडदंग का सिलसिला । भांग के साथ थोडी शालीनता थी, हालाकि फास्ट फूड के जमाने में शराब ने माहौल मे बदलाव ला दिया है। लेकिन मथुरा की होली का मिजाज़ होता अलग है।हम लोग अपने मौहल्ले में खेलकर दूसरे के मौहल्ले में जाते थे। लोग ये बताने में ज्यादा उतावले रहते थे कि उनकी होली ज्यादा बेहतर थी। सुबह जल्द शुरू हुआ ये माहौल देर तक चलता है। दिल्ली की तरह चंद धंटो का खेल नही होता। कही शालीनता, तो कंही कपडा फाड होली, तो कंही लठ्ठ चलते थे। खैर ये होली मथुरा शहर की है, और उसके साथ ही हम सब लोगो का किशोरी रमण कालेज जाकर क्रिकेट भी खेलना अलग अनुभव होता था। एक ही शिकायत रहा करती थी कि मथुरा में लोग अपनी लडकियों को घरो में ही कैद करके रखा करते थे। सारे दोस्तो की यही ख्वाहिश होती थी कि काश साथ पढने वाली कोई लडकी के दर्शन भी हो जाये. तो क्या कहना. लेकिन कमबख्त किस्मत कभी भी मैहरबान नही रही। आज भी मेरे दोस्तो में अनूप, नितिन, कनी, जौहरी प्रशांत याद आते है। ये सभी आज दुनिया के विभिन्न कौनो में है। लेकिन जब भी बात होती है। तो किसने भांग पी के क्या कीया, और किसकी क्या दशा हुयी, आज भी चैहरो पर मुस्कान ला देती है। समय का पहिया धूमता रहता है। सब है , लेकिन नही है तो वो पल जो बिताये थे। आज भी होली पर मथुरा जाना हो जाता है। लेकिन वो दोस्त नही मिल पाते जो साथ थे। पता नही ये मुमकिन होगा भी कि नही, लेकिन ब्रज की होली –का मज़ा आज भी जहन में है। और शायद हमेशा रहेगा। आज ये शहर फैल रहा है। लोग ज्यादा हो गये है। दिल्ली पास होने की वजह से सभी पिकनिक मनाने चले जाते है। व्यवसायीकरण ज्यादा हो गया है। ये शहर भी बदल रहा है। उपर से 1992 के बाबरी कांड ने शहर को छावनी में भी बदल दिया है। होरी गाती महिलाओ की जगह आज आडियो टेप और साउंड डैक ने ले ली है। आज ब्रज में होरी रे रसिया....बरजोरी रे रसिया....या फिर होली का......भा.........ऊ है....ये सुनायी नही देता। कह सकता हूं कि मथुरा की होली का मल्लमा तो वही है, लेकिन होली की मस्ती घीरे धीरे खो रही है.....पर वो मेरा शहर है। लाखो लोगो का शहर है। कहते है कि भगवान क्रष्ण जब द्वारिका चले गये थे और उनकी याद में गोपियो का बुरा हाल था, तो उन्होने उद्धव को भेजा था, ओर मथुरा और ब्रज की तारीफो के पुल बांध दिये थे। लेकिन जैसा कि सभी जानते है कि उध्दव की कुट्मबस कर दी गोपियो ने। और जब वो लोट कर गये तो उन्होने कहा था कि

हेलन्त बोरा, बोलन्त गारी , करील व्रक्ष कूप जल खारी, देखी श्याम मधुपुरी तुम्हारी।

यानी है भगवान-लोग हे लगाकर बोलते है। बात बात पर गाली देते है। करील के पेड है, कूओं का पानी खारी है। देखली आपकी मथुरा, जिसकी तारीफ में आर रात दिन एक किये रहते हो। भगवान ने कहा था कि उध्दव ये ही मथुरा है। लोग दिल में नही रखते प्यारे है, साफ दिल के है। तुम शायद नही समझोगे। तो चंद अल्फाजों में लोग नही समझेगे...यदि समझना है तो जाना पडेगा।


ये लेख संडे इंडियन में भी है। http://www.thesundayindian.com/

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
बढिया लेख।
annapurna ने कहा…
बहुत अच्छा चिट्ठा ।
Chandan Pratap Singh ने कहा…
प्रिय अनुराग जी
सादर नमस्कार
हंसुआ के ब्याह में खुरपी के गीत गाने आया हूं। आज आपका ब्लॉग देखा। सोचा मशिवरा दे दूं। 27 जवनरी 2007 के प्रभात ख़ब्रर के अंक में मैने ये लिखा था- अगर आज एसपी ज़िंदा होते तो ? आखि़री वाक्य भी ये था- अगर आज एसपी ज़िंदा होते तो यक़ीनन मर जाते। ये ख़त मैने आपको क्यों लिखा? शायद आप समझ सकें।
आपका
चंदन प्रताप सिंह
www.hinditvmedia.blogspot.com

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