हिंदुस्तान आज विकृत हो गया है, यौन पवित्रता की लंबी चौड़ी बातों के बावजूद, आम तौर पर विवाह और यौन के संबंध में लोगों के विचार सड़े हुए हैं।
सारे संसार में कभी कभी मर्द ने नारी के संबंध में शुचिता, शुद्धता पवित्रता के बड़े लंबे चौड़े आदर्श बनाये हैं। घूम फिर कर इन आदर्शों का संबंध शरीर तक ही सिमट जाता है, और शरीर के भी छोटे से हिस्से पर। नारी का परपुरुष से स्पर्श न हो। शादी के पहले हरगिज़ न हो। बाद में अपने पति से हो। एक बार जो पति बने तो दूसरा किसी हालत में न आये। भले ही ऐसे विचार मर्द के लिए सारे संसार में कभी न कभी स्वाभाविक रहे हैं, किन्तु भारत भूमि पर इन विचारों को जो जड़ें और जो प्रस्फुटन मिले वे अनिर्वचनीय हैं।
और देशों में भी औरत को जकड़ने की कोशिश की गई है लेकिन यहाँ ग़ज़ब तरीक़ों से। उसे शुद्ध रखने के लिए उसे कितना लांछित और अपमानित किया गया है, यह आज तक भारतीय मर्द की बोली से अनायास टपकता है। ऐसे लगता है मानों उसकी कभी माँ न रही हो।
दुनिया में सबसे अधिक उदास हैं हिंदुस्तानी लोग। आत्मा के पतन के लिए जाति और औरत के दोनों कटघरे मुख्यत: ज़िम्मेदार हैं। इन कटघरों में इतनी शक्ति है कि साहसिकता और आनंद की समूची क्षमता को ये ख़त्म कर देते हैं।
जो लोग ये सोचते हैं कि आधुनिक अर्थतंत्र के द्वारा ग़रीबी मिटाने के साथ ये कटघरे अपने आप ख़त्म हो जाएँगे, बड़ी भारी भूल करते हैं। ग़रीबी और ये दो कटघरे एक दूसरे के कीटाणुओं पर पनपते हैं। ये दो कटघरे परस्पर संबंधित हैं और एक दूसरे को पालते-पोसते रहते हैं। बातचीत और जीवन में से सारी ताज़गी ख़त्म हो जाती है और प्राणवान रस संचार खुल कर नहीं होता।
अक्सर लोग पूछते हैं कि देश के पतन का मुख्य कारण क्या है। उनका मतलब अल्पकाल के नहीं बल्कि लंबान के कारणों से होता है। जैसे पेड़ की शाखा परिशाखाएं फूटती हैं, वैसे कारण अनेक हैं। लेकिन पेड़ की जड़ कहीं तो है ही, और दृष्टि से वह जड़ है, जाति और औरत। जाति और औरत का जो ढाँचा इस समय देश में बना हुआ है, उससे पतन के अलावा और कोई परिणाम नहीं निकल सकता।
देश की सारी राजनीति में, चाहे जानबूझ कर अथवा परम्परा के द्वारा राष्ट्रीय सहमति का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है और वह यह कि शूद्र और औरत का, जो कि पूरी आबादी की तीन चौथाई हैं- दबाकर और राजनीति से अलग रखो। नर चाहता है कि नारी अच्छी भी हो, बुद्धिमान भी हो, चतुर, तेज़ हो और उसकी हो, उसके क़ब्ज़े में हो। ये दोनों भावनाएँ परस्पर विरोधी हैं।
भारत की औरत सचमुच बंधी है। नाम के लिए दुर्गा और भगवती हैं, जिनका एक स्वरूप काली हैं, लेकिन दरअसल एक शक्तिहीन पदार्थ है। इसलिए तो पार्वती की शादी के मौक़े पर पार्वती की माँ ने कहा,"कत विधि सृजों नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। "
राम ने जिस तरह से सीता के साथ व्यवहार किया है, हिंदुस्तान की कोई भी औरत राम के प्रति कैसे कोई बड़ा स्नेह कर सकती है, इसमें मुझे कई बार बड़ा ताज्जुब होता है। यह कहना कि राम जनतंत्र का कितना उपासक था कि एक धोबी के कह देने से उसने अपनी औरत को निकाल दिया। मान लो कि धोबी के कहने से उसको निकाल दिया। लेकिन अग्नि परीक्षा वाला कौन सा मौक़ा था। उस वक़्त क्या माँग थी! सवाल यह उठता है कि अगर वे जनतंत्र के इतने बड़े उपासक थे तो क्या राम के पास कोई और रास्ता नहीं था ! वे सीता को लेकर, गद्दी छोड़कर वनवास फिर से नहीं जा सकते थे? यदि गांधी जी आज ज़िंदा होते तो मैं उनसे कहता कि आप रामराज की बात न कहें। यह अच्छा नहीं है। इसलिए मैं सीतारामराज की बात कहता हूँ। यदि सीताराम राज कायम करने की बात देश के घर घर में पहुंच जाए, तो औरत मर्द के आपसी झगड़े हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएँगे और तब उनके आपसी रिश्ते भी अच्छे होंगे।
औरतों की समस्या निस्सन्देह कठिन है। उसकी रसोई की ग़ुलामी तो है किन्तु उसकी समस्या इससे भी आगे है। पुण्य क्या है, पाप क्या है अब इस सवाल से बचा नहीं जा सकता। मैं मानता हूँ कि आध्यात्मिकता निरपेक्ष है लेकिन नैतिकता सापेक्ष है, और हर युग और आदमी तक को अपनी नैतिकता खोजनी चाहिये।
हिंदुस्तान की प्रतीक नारी कौन? द्रौपदी या सावित्री? अगर दिमाग़ का पुनर्गठन करो तो सावित्री और द्रौपदी वाला क़िस्सा लेकर आप बहस छेड़ो। बहुत संभव है दोनों औरतें काल्पनिक हैं। यह भी हो सकता है कि हुई हों। ऐसा भी हो सकता है कि किसी एक रूप में हुई, लेकिन समय जैसे जैसे बढ़ता गया वैसे वैसे क़िस्से उनके साथ जुड़ते गये।
आज के हिंदुस्तान में द्रौपदी की उसी विशिष्टता को मर्द और औरत ज़्यादा याद रखे हुए हैँँ कि उसके पाँच पति थे। द्रौपदी की जो ख़ास बातें हैं उनकी तरफ़ ध्यान नहीं जाता। यह आज के सड़े गले हिंदुस्तान के दिमाग़ की पहचान है कि इस तरह के सवाल पर दिमाग़ बड़ी जल्दी चला जाता है कि किस औरत के कितने पति या प्रेमी हैं या इस अंग में वह किस तरह से चरित्रवादी रही है , और दूसरी बातों की तरफ़ ध्यान नहीं जाता।
सावित्री के लिए हिंदू नर और हिंदू नारी दोनों का दिल एकदम से आलोड़ित हो उठता है कि वह क्या ग़ज़ब की औरत थी। अगर हिंदू किंवदन्ती में ऐसी पतिव्रता का क़िस्सा मौजूद है कि जो यम के हाथों से अपने पति को छुड़ा लाई, तो कोई क़िस्सा हमको ऐसा भी तो बताओ, किसी पत्नीव्रत का, कि जो अपनी औरत को, मर जाने पर यम के हाथों से छुड़ा कर लाया हो और फिर से उसको जिलाया हो। आख़िर मज़ा तो तभी आता है जब ऐसा क़िस्सा दोतरफ़ा होता है।
लेकिन समाज क्रूर है। और औरतें तो बेहद क्रूर बन सकती हैं। उन औरतों के बारे में विशेषत: अगर वे अविवाहित हों और अलग अलग आदमियों के साथ घूमती फिरती हैं , तो विवाहित स्त्रियाँ उनके बारे में जैसा व्यवहार करती हैं और कानाफूसी करती हैं , उसे देखकर चिढ़ होती है। इस तरह के क्रूर मन के रहते मर्द का औरत से अलगाव कभी ख़त्म नहीं होगा।
भारत का दिमाग़ बड़ा क्रूर हो गया है। जानवरों पर जैसी क्रूरता इस देश में होती है, अन्य कहीं वैसी नहीं। मनुष्य एक दूसरे के प्रति क्रूर है। गाँव क्रूर है, मुहल्ला क्रूर है। लेकिन ऐसे कितने कुटुम्ब और लड़किया हैं जो गाँव अथवा मुहल्ले की क्रूरता से बच सकें। इसलिए उन्हें परम्परा की रस्सियों और बेड़ियों ये जकड़ कर रखना पड़ता है।
समय आ गया है कि जवान औरतें और मर्द ऐसे बचकानेपन के विरुद्ध विद्रोह करें। उन्हें यह हमेशा याद रखना चाहिये कि यौन आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध हैं, बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना। दूसरे को तकलीफ़ पहुँचाना या मारना एक और तीसरा जुर्म है जिससे जहाँ तक हो सके बचाना चाहिये।
भारतीय मर्द इतना पाजी है कि अपने घर की औरतों को वह पीटता है। सारी दुनिया में शायद औरतें पिटती हैं लेकिन जितनी हिंदुस्तान में पिटती हैं, इतनी और कहीं नहीं। हिंदुस्तान में कई जातियाँ ऐसी हैं कि उनके माता-पिता को लड़की जन्मते दुख होता है और पैदा हुई कन्या की वे हत्या करते हैं। इस तरह की कन्या हत्याएँ होती रहेंगी तो इस देश में न्याय प्रवृत्ति बढ़ना असंभव है।
ज़ुल्म का चक्कर चलता है। इस चक्कर को तोड़ना है।
( समाजवादी चिंतक डाक्टर राम मनोहर लोहिया की किताब "भारतमाता-धरतीमाता" में शामिल बहुचर्चित आलेख "पवित्रता और नर - नारी संबंध" का संपादित अंश )
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