Gulzar on Meena kumari
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा-लम्हा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक सांस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तांगों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा-लम्हा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक सांस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तांगों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
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