रावण

दशानन का दहन हर साल होता है, लेकिन फिर भी कभी मरता नहीं है रावण। राम की कथा जब भी सुनाई जाएगी इसमें रावण का जिक्र जरूर आएगा। पुराण और परंपरा का ये किरदार इस तरह हम सबकी जिंदगी में शामिल हो गया है कि उसके बगैर रामकथा की कल्पना ही नहीं की जा सकती। रावण मायावी था, अधर्मी था, अन्यायी था, अत्याचारी था। उसने तप और साधना से अपार शक्तियां हासिल की थी। उसे युद्ध में हराने के लिए यंत्र से ज्यादा मंत्र की आवश्यकता थी। देवताओं के अनुरोध पर तब राम की मदद को आए ऋषि अगस्त्य। ऋषि अगस्त्य ने राम को विजय का मंत्र प्रदानकिया। ये मंत्र था आदित्य हृदय स्तोत्र, सृष्टि का सनातन रहस्य, सबसे बड़ी शक्ति साधना। लेकिन रावण भी कुछ कम नहीं था। जब राम शक्ति की साधना के लिए सूर्य की उपासना कर रहे थे उसी वक्त रावण ने जगत के संहारकर्ता भगवान भोलेनाथ की उपासना शुरु कर दी। वो सबसे मुश्किल साधना में लगा था, ये शक्ति की सबसे बड़ी साधना थी जिसके एक एक बोल उसने खुद लिखे थे। ये था शिव तांडव स्तोत्र। रावण ने भगवान भोलेनाथ की उपासना से ही संतोष नहीं कर लिया, वो इस युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार था। उसने युद्ध भूमि में जाने से पहले हजार साल की तपस्या के बाद ब्रहमा से हासिल कवच धारण किया। इस कवच को धारण करने के बाद उसके सामने युद्ध में कोई टिक नहीं सकता था। अब रावण युद्द के लिए पूरी तरह से तत्पर और तैयार था। लेकिन रावण जानता था कि जिस तरह उसके वीर योद्धा एक के बाद एक मरते जा रहे थे उससे उसकी अजेय सेना में हताशा फैलती जा रही थी। अब लंकाधिपति रावण को सेनापति रावण की भूमिका निभानी थी। जिस पराक्रम से ब्रह्मांड को इर्ष्या थी उस ताकत को पाकर भी रावण बेचैन था। धरती से स्वर्ग तक जब कुछ भी जीतने को बाकी न रहा तब इस शक्ति का भी कोई मोल न रहा। तब एक बार फिर रावण ने भगवान शंकर की उपासना की। उसने वरदान में मोक्ष मांगा । राम और रावण का युद्ध दरअसल उसी मोक्ष ... उसी मनोकामना की सिद्धि थी। रावण परम पराक्रमी था, वीर योद्धा था दूरदर्शी था उसे अतीत और भविष्य का ज्ञान था। वो जानता था कि राम त्रिलोकेश्वर हैं, परम ब्रहम हैं, लेकिन अपने अहंकार की रक्षा के लिए वो उनके पास नहीं गया, राम को उसके पास जाना पड़ा, उसकी साध पूरी करनी पड़ी। रावण जानता था कि एक वक्त के बाद अमरता अभिशाप बन जाती है। वो सबसे शानदार मौत चाहता था। ऐसी मौत जो उसे अमर कर दे। मौत हो तो सिर्फ उसके अधर्म की, उसके अन्याय की, उसके पापों की। वो बिन्दु था जो चाहता था कि सिन्धु उसके पास आकर उससे मिले, वो ऐसी पराजय चाहता था जिसके बाद न जीतने की अभिलाषा रहे न जीने की। उसने हार की हठ की, हार की मनोकामना की । उसने जीते जी श्रीराम को लंका में कदम नहीं रखने दिए लेकिन उनके सामने उनके ही हाथों वो उनके धाम जा पहुंचा।

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