मथुरा में नहीं जन्मे श्रीकृष्ण
(कृष्ण जन्मोत्सव पर विशेष)
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है तब-तब मैं स्वयं, स्वयं की रचना करता हूं। साधु पुरुषों के कल्याण और दुष्टों के विनाश के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूं।
पूर्ण पुरुष, सोलह कला अवतार, योगीराज, भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात युद्धभूमि में खड़े अपने प्रिय सखा अर्जुन का भ्रम दूर करने के लिए कही थी। कृष्ण अंतत: अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करने में सफल भी रहे। लेकिन हजारों साल बाद एकबार फिर भ्रम पैदा हो रहा है और यह भ्रम किसी एक अर्जुन का युद्धभूमि में खड़े अपने सगे-सम्बन्धियों को लेकर नहीं है। यह भ्रम तो लाखों अर्जुनों का है। और भ्रम भी किसी युद्ध को न लेकर स्वयं भगवान कृष्ण को लेकर है। उसी श्रीकृष्ण को लेकर जिसका 5237वां जन्मदिन इस वर्ष मनाया जा रहा है।
भ्रम के वशीभूत ऐसे अर्जुनों में, मैं स्वयं भी शामिल हूं। सौभाग्य से उसी पावन भूमि में मेरा जन्म हुआ है, जिसे कृष्ण की जन्मस्थली कहा जाता है इसलिए मेरा भ्रम तथा जिज्ञासा उन तमाम लोगों से कहीं अधिक बलवती है जो देश-विदेश से यहां कृष्ण जन्माष्टमी मनाने आते हैं। वर्षभर और इस अवसर पर प्रतिवर्ष यहां आने वाले व दुनियाभर में फैले कृष्ण भक्तों का भ्रम तथा जिज्ञासा शांत करना मैं अपना नैतिक दायित्व समझता हूं अत: मैंने सोचा कि क्यों न इस कृष्ण जन्माष्टमी पर पहले मैं अपना भ्रम दूर करने तथा जिज्ञासा शांत करने की एक कोशिश करूं। यदि मेरा भ्रम दूर हो पाया और जिज्ञासा शांत हो गई तो फिर अपना नैतिक दायित्व भी निभाने का प्रयास करूंगा।
प्रयास को सार्थक करने के उद्देश्य से मैंने सर्वप्रथम अपना रुख कृष्ण जन्मभूमि की ओर किया जो मेरे घर से थोड़ी ही दूर है। सुरक्षा की दृष्टि से और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए जिला प्रशासन द्वारा हर चार कदम पर की गयी बेरीकेडिंग के कारण किसी वाहन का इस्तेमाल किया जाना संभव नहीं था इसलिए पैदल ही जाना मुनासिब समझा।
कृष्ण जन्मभूमि मंदिर की ओर चौतरफा उमड़ रही भीड़ के बीच खुद को सुरक्षित रख पाना बहुत मुश्िकल होते हुए भी मैं जैसे-तैसे वहां तक जा पहुंचा। भीड़ से घबराकर सांस लेने के लिए मैं पोतरा कुण्ड की सीढ़ियों पर परेशानहाल बैठा ही था कि किसी कोने से बांसुरी की धुन सुनाई दी। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक युवक कृष्ण के वेश में बैठा नजर आया। अचानक मेरी उत्सुकता बढ़ गई और मैं उसके पास पहुंच गया। मेरी उपस्िथति का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, हालांकि उसने मुझे देख लिया था।
मैं इस इंतजार में था कि उसका बांसुरी बजाना बंद हो तो कुछ संवाद स्थापित करूं लेकिन वह अपनी धुन में मस्त बना रहा। बहुत देर तक जब मैं वहां से नहीं हटा तो उसने मुझसे पूछा- क्या चाहिए वत्स ?
उसके इस प्रश्न ने मुझे जैसे मौका दे दिया। मैंने उसके प्रश्न को महत्व न देते हुए अपनी ओर से प्रश्न किया- भइया, कौन हो और कहां से आये हो ?
मैं यहां पहले यह बता देना चाहता हूं कि कृष्ण की नगरी में भिखारियों की संख्या हमेशा अच्छी-खासी रहती है और वह विभिन्न श्रेणियों में पाये जाते हैं। इस श्रेणी में अब बहुरूपिये भी गिने जाने लगे हैं जबकि देखा जाए तो वह भिखारी होते नहीं हैं। मेरा अपना मानना है कि बहुरूपिया एक कला है लेकिन समय के साथ दम तोड़ती इस कला से जुड़े लोगों को आज एक किस्म का भिखारी माना जाता है। जो भी हो, बहुरूपियों को लेकर मेरे मन में शुरू से सहानुभूति रही है और इसीलिए मैं उस कृष्णवेशधारी युवक के पास बातचीत के इरादे से पहुंचा था।
युवक ने भी मेरे प्रश्न का उत्तर देने की बजाय मुझसे कहा- ''वत्स! पहला प्रश्न मैंने किया था कि तुम्हें मुझसे क्या चाहिए लेकिन तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर न देकर मेरी ओर अपना प्रश्न उछाल दिया। यह उचित तो नहीं है लेकिन फिर भी मैं पहले तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देता हूं।
तुम सोच रहे हो कि मैं बहुरूपिया हूं और कृष्ण जन्माष्टमी पर उमड़ रही भीड़ से धंधा करने के लिए आया हूं। तुम गलत सोच रहे हो वत्स, अगर मैं यहां धंधा करने आया होता तो एकांत में पोतरा कुण्ड के किनारे बैठकर बांसुरी नहीं बजा रहा होता।''
मेरे मन में चल रही बहुरूपिया वाली बात को उसके द्वारा पकड़ लिये जाने और बार-बार मुझे वत्स संबोधित करने पर मैं थोड़ा चौंका लेकिन अपने भावों को छिपाते हुए मैंने उससे कहा- इस रूप में तुम्हारे पास यहां छिपकर बैठने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है दोस्त। कोई सामान्य दिन होता तो चल जाता लेकिन इस समय पुलिस तुम्हें मुर्गा बना देगी। कमाई करना भूल जाओगे। और यदि किसी परेशान-आत्मा पुलिस वाले के हत्थे चढ़ गये तो उससे जान छुड़ाना मुश्िकल हो जायेगा।
मेरी इस बेबाकी पर वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोला- ''मेरी चिंता छोड़ वत्स और अपनी कह। तू क्यों इस बात को लेकर परेशान हो रहा है कि कृष्ण का जन्म वास्तव में कहां हुआ था और यह (मथुरा) उसकी जन्मभूमि है या नहीं।''
मेरे मन की बात पढ़ लेने का दूसरा सबूत उसके द्वारा दिये जाने पर मैं विचलित हो गया। मैं कुछ बोल पाता इससे पहले वह बोलने लगा- ''वत्स! मैं अनेक वर्षों से अपने जन्मदिन पर यहां आता हूं। मैं भी तेरी तरह अपने जन्मस्थान को लेकर भ्रमित हूं और इसीलिए गीता में अर्जुन को दिये गये अपने इस आशय के उपदेश कि... यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:... पर अमल नहीं कर पा रहा।
वत्स! मैं तेरे व तेरे जैसे सभी लोगों के मन में चल रही इस हलचल को जान रहा हूं कि ...
आखिर धर्म की हानि और अधर्म की पराकाष्ठा का पैमाना क्या है ?
साधु पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के विनाश करने का समय क्या अब भी नहीं आया ?''
तीसरी बार मन की बात पढ़ लेने का उस युवक द्वारा सबूत दिये जाने पर मेरा उसके प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था इसलिए इस बार मैंने उसे 'तुम'' की जगह ''आप'' संबोधित करते हुए कहा- जब आप सब-कुछ जानते हैं तो त्राहि-त्राहि कर रही जनता को कष्टों से छुटकारा क्यों नहीं दिला रहे ? चारों ओर पापाचार देखते हुए भी अवतरित क्यों नहीं हो रहे ? गीता में अर्जुन को दिये गये अपने उस उपदेश पर अमल क्यों नहीं कर रहे जिस पर आज भी लाखों लोग भरोसा किये बैठे हैं ?
मेरे द्वारा एक साथ कई प्रश्न कर दिये जाने पर वह युवक पहले की तरह मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोला- ''शांत वत्स शांत। तेरे इस तरह अशांत होने से काम नहीं चलेगा क्यों कि मैं खुद काफी बेचैनी महसूस कर रहा हूं। मेरी बेचैनी के दो प्रमुख कारण है। पहला कारण तो वही है जिसे लेकर तू भ्रमित है। यानि अपनी जन्मस्थली के संदर्भ में। और दूसरा भी उसी से जुड़ा है। जब तक पहले को लेकर भ्रम दूर नहीं हो जाता, दूसरे को लेकर भ्रम दूर नहीं हो सकता।''
मैंने कहा- जो कहना है, साफ-साफ कहो।
वह बोला- ''जैसा कि मैंने तुझे बताया वत्स, मैं पिछले कई वर्षों से अपने जन्मदिन पर यहां आता हूं। मेरे यहां आने का एकमात्र मकसद यही पता करना है कि क्या वास्तव में मेरी जन्मस्थली यही है ?
अगर यह मेरी जन्मस्थली है तो यहां से चंद कदम की दूरी पर ही मेरी प्रिय गायों का प्रतिदिन बेरहमी से निर्बाध कत्ल कैसे किया जा रहा है ? यदि मेरा जन्म कंस के कारागार की तरह बने इसी परकोटे के अंदर हुआ था जिसे लोग कृष्ण जन्मभूमि कहते हैं तो यहां कंस के समय से भी कहीं अधिक सुरक्षाकर्मी क्यों तैनात हैं ? क्या अब भी यहां कंस का ही शासन है और यदि नहीं, तो ये सुरक्षाकर्मी यहां क्या कर रहे हैं ? मेरा जन्मदिन मनाने वाले तथा मुझमें आस्था रखने वाले क्यों न तो गायों का कत्ल रोक रहे और क्यों मेरे भक्तों को बेरोकटोक आने-जाने दे रहे हैं।
यदि मेरा जन्म इसी ब्रजभूमि पर कालिंदी के किनारे हुआ था तो क्यों कालिंदी आज अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है ? पतित पावनी कहलाने वाली मेरी पटरानी क्यों एक गंदा नाला बनकर रह गई है ?
क्यों मेरी जन्मस्थली के निकट शराब की दुकानें खोल दी गई हैं और कैसे यहां मांस की खुलेआम बिक्री हो रही है ? मेरी राधा की क्रीड़ास्थली बरसाना की पहाड़ियों का खनन कोई क्यों नहीं रोक पा रहा ?
क्यों वृंदावन से मेरी पहचान के सारे चिन्ह विकास के नाम पर नष्ट किये जा रहे हैं ? क्यों मथुरा और वृंदावन कुख्यात अपराधियों का अड्डा बनकर रह गये हैं। धर्म के सौदागर कैसे यहां दिन-दूनी व रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं?''
खुद को कृष्ण साबित करने पर तुले इस युवक के मुंह से ऐसी बातें सुनकर मैंने उससे कहा- अरे भइया, भगवान तुम हो या मैं। अगर साधारण मनुष्य ही यह सब कर पाता तो तुम्हारी क्या जरूरत थी। तुम तो मुझे कनफ्यूज कर रहे हो।
मेरी बात सुनकर वह युवक कहने लगा- ''देवता या ईश्वर स्वयं में कोई सृष्टि नहीं है। मानव जब धर्म व कर्म पर विजय पाकर जनाधार का केन्द्र बन जाता है तो वह अलग अकेला एक नयी संज्ञा से प्रतिष्ठित होता है। यही नयी संज्ञा देवता और ईश्वर कहलाती है।
उसने पूछा- किसी ने राक्षस देखे हैं ?
मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना उसने कहा- अर्ध सत्य में हमारी चेतना के द्वार खुलते हैं और जिंदगीभर उसी अर्ध सत्य को सनातन सत्य मानकर हम हारे हुए जुआरी की तरह असहाय अनुभव करते हैं। ऐसे में शेष रह जाता है दीन-हीन, असहाय, दयनीय तथा लाचार मनुष्य अन्यथा तो मनुष्य ही देवता है। मनुष्य ही दानव है और मनुष्य ही ईश्वर है। फर्क केवल इतना है कि हर मनुष्य के क्रिया-कलाप उसके विशेषण को स्थिर करते हैं।
सृष्टि की गति और प्रगति का अभिषेक यदि किसी के हाथों होना है, यदि किसी के माथे पर उसका श्रेय लिखा जाना है तो वह मनुष्य ही है।''
उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- मात्र मेरे जन्म की कहानियां जीने से कुछ नहीं होगा। कहानियां तो घर-घर पैदा हो गये भागवताचार्य भी सुना रहे हैं। उन्होंने अपने निजी स्वार्थवश भागवत जैसे ग्रंथ को मृतप्राय: बना डाला है। उसे अपने भोग-विलास की प्राप्ति का माध्यम बना लिया है। भौतिकवादी ये भागवताचार्य अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साल में जाने कितनी बार मेरा जन्म कराते हैं। कितनी बार बधाइयां गाते हैं लेकिन क्या वह धर्म है ? कदापि नहीं।
उसने कहा- ''यूं तो समूचा देश ऐसे पापाचारियों से भरा पड़ा है लेकिन मेरी पीड़ा यह है कि मेरी अपनी जन्मस्थली में ही मेरे द्वारा दिये गये धर्म तथा कर्म के उपदेश का कोई अनुकरण नहीं कर रहा।
ऐसा लगता है जैसे कंस का वध हुआ ही नहीं। यदि हुआ होता तो मुझे सोचने पर विवश नहीं होना पड़ता।
सब जानते हैं कि जीवमात्र के अंदर मैं ही समाया हूं। मैं अजन्मा हूं, अविनाशी हूं। मैं जन्म और मृत्यु से परे हूं क्योंकि आत्मा की मौत नहीं होती। मैं जर्रे-जर्रे में समाया हूं।
हर धर्म यह कहता है और हर धर्म का व्यक्ित इसे जानता है, बावजूद इसके मेरे जन्म की प्रतीक्षा करता रहता है।
मेरी अपनी जन्मभूमि के लोग इस दिन उत्सव मनाते हैं और उसी उत्सव को धर्म मानते हैं लेकिन सबसे बड़े धर्म इंसानियत से विमुख होते जा रहे हैं।
यह वो भूमि है जहां के लोग कृष्ण को साकार कर सारे विश्व में सहिष्णुता और भाईचारे का संदेश फैला सकते हैं। यह वो भूमि हैं जहां के लोग चाहें तो सम्पूर्ण विश्व को धर्म व कर्म का सार्थक उपदेश दे सकते हैं। दुनियाभर में व्याप्त भय के वातावरण को समाप्त करने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं लेकिन कर क्या रहे हैं ? कर रहे हैं फिर किसी कृष्ण के जन्मने की उम्मीद। कर रहे हैं धर्म का धंधा और अधर्म का कारोबार।''
उसने कहा- ''वर्ष-दर-वर्ष यहां के बिगड़ते हालातों को देखकर मेरा मन करता है कि एक रिक्शा व एक माइक किराये पर लूं और यहां आने वाले अपने भक्तों की भीड़ से चीख-चीख कर कहूं कि हे भक्तगण्ा! जिस मथुरा को तुम मेरी जन्मभूमि मानकर यहां आते हो, वह वास्तव में मेरी जन्मभूमि है भी या नहीं, मैं नहीं कह सकता। यहां के हालात देखकर मैं खुद भ्रमित हूं कि मेरा जन्म क्या यहीं हुआ था या वो मथुरा कोई और थी। पहले मुझे तय कर लेने दो, उसके बाद तुम यहां आना।
मथुरा के वर्तमान हालातों ने मुझे संशय में डाल दिया है क्योंकि यदि इस भूमि के लोग मेरी व अपनी जन्मस्थली का मान, यहां की गरिमा के अनुरूप रखते तो संभवत: दोबारा किसी कृष्ण के जन्म की जरूरत ही नहीं पड़ती।
यदि मैं यह मान भी लूं कि यही मेरी मातृभूमि है, मेरा जन्म यहीं हुआ था, तो भी पहले मुझे अपना घर, अपनी मातृभूमि संभाल लेने दो क्योंकि जब तक मैं यहां से गौकशी बंद नहीं करा पाता, यमुना को उसका पुराना स्वरूप वापस नहीं दिला देता, बरसाने की पहाड़ियों का अवैध खनन बंद नहीं करा पाता, वृंदावन से पापाचार व अनाचार नहीं मिटा देता, मांस तथा शराब की बिक्री बंद नहीं करा लेता, धर्म की आड़ में चल रही अधर्म की दुकानों पर ताले नहीं पड़वा देता और भागवत का व्यापार करने वालों को उसकी सजा नहीं दे लेता तब तक मेरी जन्मभूमि पर संदेह बना रहेगा। फिर चाहे यह संदेह मेरे भक्तों को हो या मुझे। वैसे भी अगर मैं अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि के हालात ठीक नहीं कर पाता तो मुझे दुनिया का ठेका लेने का कोई अधिकार नहीं रह जाता इसलिए बार- बार जन्मने से अच्छा है कि मैं एक बार फिर अपने जन्म तथा जन्मभूमि की सार्थकता दुनिया के सामने सिद्ध कर लूं क्योंकि अगर मैं ऐसा कर पाया तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा जन्म कहां व कब हुआ था। फिर कोई यह नहीं पूछेगा कि आखिर धर्म की हानि और अधर्म की पराकाष्ठा का पैमाना क्या है ? साधु पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के विनाश करने का समय कब आता है ?''
अब मुझे यकीन हो चला था कि वाकई मेरा साक्षात्कार उसी कृष्ण से हो रहा है जिसके जन्म का उत्सव मनाने तो सब यहां आते हैं लेकिन अंतरात्मा में बैठे उस कृष्ण की आवाज कोई नहीं सुनता जो अपनी पीड़ा यहीं किसी कुण्ड के एक कोने में बैठकर सबको बताना चाहता है। सबसे कहना चाहता है कि....
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
अर्थात् हे भारत! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है तब-तब मैं स्वयं, स्वयं की रचना करता हूं। साधु पुरुषों के कल्याण और दुष्टों के विनाश के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में जन्म लेता हूं।
पूर्ण पुरुष, सोलह कला अवतार, योगीराज, भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात युद्धभूमि में खड़े अपने प्रिय सखा अर्जुन का भ्रम दूर करने के लिए कही थी। कृष्ण अंतत: अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करने में सफल भी रहे। लेकिन हजारों साल बाद एकबार फिर भ्रम पैदा हो रहा है और यह भ्रम किसी एक अर्जुन का युद्धभूमि में खड़े अपने सगे-सम्बन्धियों को लेकर नहीं है। यह भ्रम तो लाखों अर्जुनों का है। और भ्रम भी किसी युद्ध को न लेकर स्वयं भगवान कृष्ण को लेकर है। उसी श्रीकृष्ण को लेकर जिसका 5237वां जन्मदिन इस वर्ष मनाया जा रहा है।
भ्रम के वशीभूत ऐसे अर्जुनों में, मैं स्वयं भी शामिल हूं। सौभाग्य से उसी पावन भूमि में मेरा जन्म हुआ है, जिसे कृष्ण की जन्मस्थली कहा जाता है इसलिए मेरा भ्रम तथा जिज्ञासा उन तमाम लोगों से कहीं अधिक बलवती है जो देश-विदेश से यहां कृष्ण जन्माष्टमी मनाने आते हैं। वर्षभर और इस अवसर पर प्रतिवर्ष यहां आने वाले व दुनियाभर में फैले कृष्ण भक्तों का भ्रम तथा जिज्ञासा शांत करना मैं अपना नैतिक दायित्व समझता हूं अत: मैंने सोचा कि क्यों न इस कृष्ण जन्माष्टमी पर पहले मैं अपना भ्रम दूर करने तथा जिज्ञासा शांत करने की एक कोशिश करूं। यदि मेरा भ्रम दूर हो पाया और जिज्ञासा शांत हो गई तो फिर अपना नैतिक दायित्व भी निभाने का प्रयास करूंगा।
प्रयास को सार्थक करने के उद्देश्य से मैंने सर्वप्रथम अपना रुख कृष्ण जन्मभूमि की ओर किया जो मेरे घर से थोड़ी ही दूर है। सुरक्षा की दृष्टि से और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए जिला प्रशासन द्वारा हर चार कदम पर की गयी बेरीकेडिंग के कारण किसी वाहन का इस्तेमाल किया जाना संभव नहीं था इसलिए पैदल ही जाना मुनासिब समझा।
कृष्ण जन्मभूमि मंदिर की ओर चौतरफा उमड़ रही भीड़ के बीच खुद को सुरक्षित रख पाना बहुत मुश्िकल होते हुए भी मैं जैसे-तैसे वहां तक जा पहुंचा। भीड़ से घबराकर सांस लेने के लिए मैं पोतरा कुण्ड की सीढ़ियों पर परेशानहाल बैठा ही था कि किसी कोने से बांसुरी की धुन सुनाई दी। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो एक युवक कृष्ण के वेश में बैठा नजर आया। अचानक मेरी उत्सुकता बढ़ गई और मैं उसके पास पहुंच गया। मेरी उपस्िथति का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, हालांकि उसने मुझे देख लिया था।
मैं इस इंतजार में था कि उसका बांसुरी बजाना बंद हो तो कुछ संवाद स्थापित करूं लेकिन वह अपनी धुन में मस्त बना रहा। बहुत देर तक जब मैं वहां से नहीं हटा तो उसने मुझसे पूछा- क्या चाहिए वत्स ?
उसके इस प्रश्न ने मुझे जैसे मौका दे दिया। मैंने उसके प्रश्न को महत्व न देते हुए अपनी ओर से प्रश्न किया- भइया, कौन हो और कहां से आये हो ?
मैं यहां पहले यह बता देना चाहता हूं कि कृष्ण की नगरी में भिखारियों की संख्या हमेशा अच्छी-खासी रहती है और वह विभिन्न श्रेणियों में पाये जाते हैं। इस श्रेणी में अब बहुरूपिये भी गिने जाने लगे हैं जबकि देखा जाए तो वह भिखारी होते नहीं हैं। मेरा अपना मानना है कि बहुरूपिया एक कला है लेकिन समय के साथ दम तोड़ती इस कला से जुड़े लोगों को आज एक किस्म का भिखारी माना जाता है। जो भी हो, बहुरूपियों को लेकर मेरे मन में शुरू से सहानुभूति रही है और इसीलिए मैं उस कृष्णवेशधारी युवक के पास बातचीत के इरादे से पहुंचा था।
युवक ने भी मेरे प्रश्न का उत्तर देने की बजाय मुझसे कहा- ''वत्स! पहला प्रश्न मैंने किया था कि तुम्हें मुझसे क्या चाहिए लेकिन तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर न देकर मेरी ओर अपना प्रश्न उछाल दिया। यह उचित तो नहीं है लेकिन फिर भी मैं पहले तुम्हारी जिज्ञासा शांत कर देता हूं।
तुम सोच रहे हो कि मैं बहुरूपिया हूं और कृष्ण जन्माष्टमी पर उमड़ रही भीड़ से धंधा करने के लिए आया हूं। तुम गलत सोच रहे हो वत्स, अगर मैं यहां धंधा करने आया होता तो एकांत में पोतरा कुण्ड के किनारे बैठकर बांसुरी नहीं बजा रहा होता।''
मेरे मन में चल रही बहुरूपिया वाली बात को उसके द्वारा पकड़ लिये जाने और बार-बार मुझे वत्स संबोधित करने पर मैं थोड़ा चौंका लेकिन अपने भावों को छिपाते हुए मैंने उससे कहा- इस रूप में तुम्हारे पास यहां छिपकर बैठने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है दोस्त। कोई सामान्य दिन होता तो चल जाता लेकिन इस समय पुलिस तुम्हें मुर्गा बना देगी। कमाई करना भूल जाओगे। और यदि किसी परेशान-आत्मा पुलिस वाले के हत्थे चढ़ गये तो उससे जान छुड़ाना मुश्िकल हो जायेगा।
मेरी इस बेबाकी पर वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोला- ''मेरी चिंता छोड़ वत्स और अपनी कह। तू क्यों इस बात को लेकर परेशान हो रहा है कि कृष्ण का जन्म वास्तव में कहां हुआ था और यह (मथुरा) उसकी जन्मभूमि है या नहीं।''
मेरे मन की बात पढ़ लेने का दूसरा सबूत उसके द्वारा दिये जाने पर मैं विचलित हो गया। मैं कुछ बोल पाता इससे पहले वह बोलने लगा- ''वत्स! मैं अनेक वर्षों से अपने जन्मदिन पर यहां आता हूं। मैं भी तेरी तरह अपने जन्मस्थान को लेकर भ्रमित हूं और इसीलिए गीता में अर्जुन को दिये गये अपने इस आशय के उपदेश कि... यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:... पर अमल नहीं कर पा रहा।
वत्स! मैं तेरे व तेरे जैसे सभी लोगों के मन में चल रही इस हलचल को जान रहा हूं कि ...
आखिर धर्म की हानि और अधर्म की पराकाष्ठा का पैमाना क्या है ?
साधु पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के विनाश करने का समय क्या अब भी नहीं आया ?''
तीसरी बार मन की बात पढ़ लेने का उस युवक द्वारा सबूत दिये जाने पर मेरा उसके प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था इसलिए इस बार मैंने उसे 'तुम'' की जगह ''आप'' संबोधित करते हुए कहा- जब आप सब-कुछ जानते हैं तो त्राहि-त्राहि कर रही जनता को कष्टों से छुटकारा क्यों नहीं दिला रहे ? चारों ओर पापाचार देखते हुए भी अवतरित क्यों नहीं हो रहे ? गीता में अर्जुन को दिये गये अपने उस उपदेश पर अमल क्यों नहीं कर रहे जिस पर आज भी लाखों लोग भरोसा किये बैठे हैं ?
मेरे द्वारा एक साथ कई प्रश्न कर दिये जाने पर वह युवक पहले की तरह मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोला- ''शांत वत्स शांत। तेरे इस तरह अशांत होने से काम नहीं चलेगा क्यों कि मैं खुद काफी बेचैनी महसूस कर रहा हूं। मेरी बेचैनी के दो प्रमुख कारण है। पहला कारण तो वही है जिसे लेकर तू भ्रमित है। यानि अपनी जन्मस्थली के संदर्भ में। और दूसरा भी उसी से जुड़ा है। जब तक पहले को लेकर भ्रम दूर नहीं हो जाता, दूसरे को लेकर भ्रम दूर नहीं हो सकता।''
मैंने कहा- जो कहना है, साफ-साफ कहो।
वह बोला- ''जैसा कि मैंने तुझे बताया वत्स, मैं पिछले कई वर्षों से अपने जन्मदिन पर यहां आता हूं। मेरे यहां आने का एकमात्र मकसद यही पता करना है कि क्या वास्तव में मेरी जन्मस्थली यही है ?
अगर यह मेरी जन्मस्थली है तो यहां से चंद कदम की दूरी पर ही मेरी प्रिय गायों का प्रतिदिन बेरहमी से निर्बाध कत्ल कैसे किया जा रहा है ? यदि मेरा जन्म कंस के कारागार की तरह बने इसी परकोटे के अंदर हुआ था जिसे लोग कृष्ण जन्मभूमि कहते हैं तो यहां कंस के समय से भी कहीं अधिक सुरक्षाकर्मी क्यों तैनात हैं ? क्या अब भी यहां कंस का ही शासन है और यदि नहीं, तो ये सुरक्षाकर्मी यहां क्या कर रहे हैं ? मेरा जन्मदिन मनाने वाले तथा मुझमें आस्था रखने वाले क्यों न तो गायों का कत्ल रोक रहे और क्यों मेरे भक्तों को बेरोकटोक आने-जाने दे रहे हैं।
यदि मेरा जन्म इसी ब्रजभूमि पर कालिंदी के किनारे हुआ था तो क्यों कालिंदी आज अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है ? पतित पावनी कहलाने वाली मेरी पटरानी क्यों एक गंदा नाला बनकर रह गई है ?
क्यों मेरी जन्मस्थली के निकट शराब की दुकानें खोल दी गई हैं और कैसे यहां मांस की खुलेआम बिक्री हो रही है ? मेरी राधा की क्रीड़ास्थली बरसाना की पहाड़ियों का खनन कोई क्यों नहीं रोक पा रहा ?
क्यों वृंदावन से मेरी पहचान के सारे चिन्ह विकास के नाम पर नष्ट किये जा रहे हैं ? क्यों मथुरा और वृंदावन कुख्यात अपराधियों का अड्डा बनकर रह गये हैं। धर्म के सौदागर कैसे यहां दिन-दूनी व रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं?''
खुद को कृष्ण साबित करने पर तुले इस युवक के मुंह से ऐसी बातें सुनकर मैंने उससे कहा- अरे भइया, भगवान तुम हो या मैं। अगर साधारण मनुष्य ही यह सब कर पाता तो तुम्हारी क्या जरूरत थी। तुम तो मुझे कनफ्यूज कर रहे हो।
मेरी बात सुनकर वह युवक कहने लगा- ''देवता या ईश्वर स्वयं में कोई सृष्टि नहीं है। मानव जब धर्म व कर्म पर विजय पाकर जनाधार का केन्द्र बन जाता है तो वह अलग अकेला एक नयी संज्ञा से प्रतिष्ठित होता है। यही नयी संज्ञा देवता और ईश्वर कहलाती है।
उसने पूछा- किसी ने राक्षस देखे हैं ?
मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना उसने कहा- अर्ध सत्य में हमारी चेतना के द्वार खुलते हैं और जिंदगीभर उसी अर्ध सत्य को सनातन सत्य मानकर हम हारे हुए जुआरी की तरह असहाय अनुभव करते हैं। ऐसे में शेष रह जाता है दीन-हीन, असहाय, दयनीय तथा लाचार मनुष्य अन्यथा तो मनुष्य ही देवता है। मनुष्य ही दानव है और मनुष्य ही ईश्वर है। फर्क केवल इतना है कि हर मनुष्य के क्रिया-कलाप उसके विशेषण को स्थिर करते हैं।
सृष्टि की गति और प्रगति का अभिषेक यदि किसी के हाथों होना है, यदि किसी के माथे पर उसका श्रेय लिखा जाना है तो वह मनुष्य ही है।''
उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- मात्र मेरे जन्म की कहानियां जीने से कुछ नहीं होगा। कहानियां तो घर-घर पैदा हो गये भागवताचार्य भी सुना रहे हैं। उन्होंने अपने निजी स्वार्थवश भागवत जैसे ग्रंथ को मृतप्राय: बना डाला है। उसे अपने भोग-विलास की प्राप्ति का माध्यम बना लिया है। भौतिकवादी ये भागवताचार्य अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साल में जाने कितनी बार मेरा जन्म कराते हैं। कितनी बार बधाइयां गाते हैं लेकिन क्या वह धर्म है ? कदापि नहीं।
उसने कहा- ''यूं तो समूचा देश ऐसे पापाचारियों से भरा पड़ा है लेकिन मेरी पीड़ा यह है कि मेरी अपनी जन्मस्थली में ही मेरे द्वारा दिये गये धर्म तथा कर्म के उपदेश का कोई अनुकरण नहीं कर रहा।
ऐसा लगता है जैसे कंस का वध हुआ ही नहीं। यदि हुआ होता तो मुझे सोचने पर विवश नहीं होना पड़ता।
सब जानते हैं कि जीवमात्र के अंदर मैं ही समाया हूं। मैं अजन्मा हूं, अविनाशी हूं। मैं जन्म और मृत्यु से परे हूं क्योंकि आत्मा की मौत नहीं होती। मैं जर्रे-जर्रे में समाया हूं।
हर धर्म यह कहता है और हर धर्म का व्यक्ित इसे जानता है, बावजूद इसके मेरे जन्म की प्रतीक्षा करता रहता है।
मेरी अपनी जन्मभूमि के लोग इस दिन उत्सव मनाते हैं और उसी उत्सव को धर्म मानते हैं लेकिन सबसे बड़े धर्म इंसानियत से विमुख होते जा रहे हैं।
यह वो भूमि है जहां के लोग कृष्ण को साकार कर सारे विश्व में सहिष्णुता और भाईचारे का संदेश फैला सकते हैं। यह वो भूमि हैं जहां के लोग चाहें तो सम्पूर्ण विश्व को धर्म व कर्म का सार्थक उपदेश दे सकते हैं। दुनियाभर में व्याप्त भय के वातावरण को समाप्त करने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं लेकिन कर क्या रहे हैं ? कर रहे हैं फिर किसी कृष्ण के जन्मने की उम्मीद। कर रहे हैं धर्म का धंधा और अधर्म का कारोबार।''
उसने कहा- ''वर्ष-दर-वर्ष यहां के बिगड़ते हालातों को देखकर मेरा मन करता है कि एक रिक्शा व एक माइक किराये पर लूं और यहां आने वाले अपने भक्तों की भीड़ से चीख-चीख कर कहूं कि हे भक्तगण्ा! जिस मथुरा को तुम मेरी जन्मभूमि मानकर यहां आते हो, वह वास्तव में मेरी जन्मभूमि है भी या नहीं, मैं नहीं कह सकता। यहां के हालात देखकर मैं खुद भ्रमित हूं कि मेरा जन्म क्या यहीं हुआ था या वो मथुरा कोई और थी। पहले मुझे तय कर लेने दो, उसके बाद तुम यहां आना।
मथुरा के वर्तमान हालातों ने मुझे संशय में डाल दिया है क्योंकि यदि इस भूमि के लोग मेरी व अपनी जन्मस्थली का मान, यहां की गरिमा के अनुरूप रखते तो संभवत: दोबारा किसी कृष्ण के जन्म की जरूरत ही नहीं पड़ती।
यदि मैं यह मान भी लूं कि यही मेरी मातृभूमि है, मेरा जन्म यहीं हुआ था, तो भी पहले मुझे अपना घर, अपनी मातृभूमि संभाल लेने दो क्योंकि जब तक मैं यहां से गौकशी बंद नहीं करा पाता, यमुना को उसका पुराना स्वरूप वापस नहीं दिला देता, बरसाने की पहाड़ियों का अवैध खनन बंद नहीं करा पाता, वृंदावन से पापाचार व अनाचार नहीं मिटा देता, मांस तथा शराब की बिक्री बंद नहीं करा लेता, धर्म की आड़ में चल रही अधर्म की दुकानों पर ताले नहीं पड़वा देता और भागवत का व्यापार करने वालों को उसकी सजा नहीं दे लेता तब तक मेरी जन्मभूमि पर संदेह बना रहेगा। फिर चाहे यह संदेह मेरे भक्तों को हो या मुझे। वैसे भी अगर मैं अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि के हालात ठीक नहीं कर पाता तो मुझे दुनिया का ठेका लेने का कोई अधिकार नहीं रह जाता इसलिए बार- बार जन्मने से अच्छा है कि मैं एक बार फिर अपने जन्म तथा जन्मभूमि की सार्थकता दुनिया के सामने सिद्ध कर लूं क्योंकि अगर मैं ऐसा कर पाया तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा जन्म कहां व कब हुआ था। फिर कोई यह नहीं पूछेगा कि आखिर धर्म की हानि और अधर्म की पराकाष्ठा का पैमाना क्या है ? साधु पुरुषों के कल्याण तथा दुष्टों के विनाश करने का समय कब आता है ?''
अब मुझे यकीन हो चला था कि वाकई मेरा साक्षात्कार उसी कृष्ण से हो रहा है जिसके जन्म का उत्सव मनाने तो सब यहां आते हैं लेकिन अंतरात्मा में बैठे उस कृष्ण की आवाज कोई नहीं सुनता जो अपनी पीड़ा यहीं किसी कुण्ड के एक कोने में बैठकर सबको बताना चाहता है। सबसे कहना चाहता है कि....
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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