सच्चाई का बँटवारा

वुसतुल्लाह ख़ान
मुझे एक रिटायर्ड जनरल ने एक वाक़या सुनाया कि अगस्त 1947 में देहरादून एकेडमी में अचानक यह आदेश आया कि कैडेट फैसला कर लें कि वे भारतीय सेना में रहेंगे या पाकिस्तानी फ़ौज का हिस्सा बनेंगे.
मुसलमान कैडेट्स को बताया गया कि उनके लिए पाकिस्तान जाना ज़्यादा उचित रहेगा. उसके बाद उनकी रवानगी के लिए व्यवस्था शुरू होगी.
फिर आदेश आया कि देहरादून की परिसंपत्ति का भी बँटवारा होगा जिसमें पुस्तकालय भी शामिल है.
जब पुस्तकों का बँटवारा होने लगा तो दिक्कत यह आ गई कि इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के 20 संस्करणों का क्या किया जाए.
एक कैडेट ने कहा-लो यह क्या मुश्किल है. आधे संस्करण पाकिस्तान के और आधे भारत के.
एक दूसरे से जुदा होने का सोच कर सब उदास थे लेकिन इस कैडेट का प्रस्ताव सुन कर सब हँस पड़े.
आख़िर फ़ैसला हुआ कि इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका भारत में ही रहेगा.
यह प्रस्ताव देना वाला कैडेट बाद में भारत और पाकिस्तान में से किसी एक की सेना का सेनाध्यक्ष बना (मैं नाम नहीं बताऊँगा).
विभाजन की तरह दोनों देशों ने सच और झूठ को भी आधा-आधा बाँट लिया.
अधिकतर भारतीय इतिहासकार और पत्रकार आप को बताएँगे कि बँटवारे के समय लगभग डेढ़ से पौने दो करोड़ हिंदू और सिख पाकिस्तान में शामिल होने वाले इलाक़ों से निकल गए या हताहत हुए.
लेकिन वही इतिहासकार या पत्रकार ठीक तौर से नहीं बता पाएँगे कि कितने मुसलमान भारत से पाकिस्तान आए और कितने क़त्ल हुए.
इसी तरह पाकिस्तान में अगर किसी इतिहासकार या पत्रकार से यही सवाल पूछा जाए तो वह झट से कहेगा कि एक करोड़ मुसलमान घरों से उजड़े और 20 लाख क़त्ल हुए.
लेकिन हिंदू और सिख कितने उजड़े और क़त्ल हुए उस का ठीक से अंदाज़ा नहीं है.
आप पाकिस्तान में किसी से पूछें कि 1971 में सेना ने कितने बंगाली क़त्ल किए तो वह कहेगा कि शायद चंद हज़ार मरे होंगे.
और फिर अगली सांस में कहेगा कि मुक्ति वाहनी ने ग़ैर बंगाली पाकिस्तानियों की पूरी-पूरी आबादियाँ ख़त्म कर दीं.
आप ढाका में किसी से पूछें कि तुम लोगों ने कितने ग़ैर बंगाली मारे तो वह कहेगा कि चंद सौ मरे होंगे. लेकिन 10 लाख बंगाली क़त्ल हुए और 20 लाख बंगाली महिलाओं का बलात्कार हुआ.
अगर आज हिंदुस्तान के बँटवारे के 62 साल बाद और पाकिस्तान के बँटवारे के 38 साल बाद भी तीनों देशों के इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का यह रवैया है, तो यक़ीन कर लें कि मेरे और आप के जीवन में तो वह साउथ एशियन ट्रूथ ऐंड रिकंसीलिएशन कमीशन (South Asian Truth and Reconciliation Commission) बनने से रहा जो आधे सच को बाक़ी आधे सच से मिलाकर झूठ को एक गहरी क़ब्र में दफ़ना सके.

टिप्पणियाँ

अबयज़ ख़ान ने कहा…
सच का सामना करना ज़रा मुश्किल है और फिर हम तो वैसे भी इतिहासकारों पर ही यकीन करते है... जिन्होने उस दौर को देखा था उसमें से बहुत से लोग तो अब बचे भी नहीं... लेकिन नई पीढ़ी काफी समझदार हो चुकी है...

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