विवाद होगा तो बिक्री भी होगी

राजेश प्रियदर्शी

अकबर इलाहाबादी कह गए हैं- 'बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीदार नहीं हूँ'... सदी गुज़र गई किसी ने नहीं लिखा--'बाज़ार में बैठा हूँ, दुकानदार नहीं हूँ'.
तरह-तरह के दुकानदार होते हैं. कुछ मोलभाव करते हैं, कुछ 'फ़िक्स्ड प्राइज़' का बोर्ड लगाते हैं, कुछ कहते हैं, 'नहीं ख़रीदा तो पछताओगे, मेरे क्या है, मैं तो लुटा रहा हूँ.' कुछ ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं कि मैं तो दुकानदार ही नहीं हूँ, जनकल्याण कर रहा हूँ. संत-समाजसेवी टाइप.
कई हैं जो बेचते कुछ हैं, बताते कुछ और हैं. सैकड़ों मिसालों में सुविधा के लिए दो नाम-- अटल बिहारी वाजपेयी और विश्वनाथ प्रताप सिंह...
कवि थे लेकिन ग़लती से राजनीति में आ गए, दूसरे चित्रकार थे राजनीति के रंग में दुर्घटनावश से रंग गए. कवियों की संगत में नेता, नेताओं की संगत में चित्रकार, माया मिली और राम भी.
पता नहीं कौन-कौन, कहाँ-कहाँ, क्या-क्या बेच रहा है, लेकिन आजकल दो नाम चर्चा में हैं जिन पर बेचने का आरोप लगाया जा रहा है मानो बेचना कोई बुरी बात हो. वैसे भी बुरी चीज़ नहीं बेच रहे हैं, एक को फ़िल्म बेचनी है, दूसरे को किताब.
दुनिया के बाज़ार में सब दुकानदार हैं, मुक़ाबला सख़्त है, जो अक्ल लगाए, बेच ले जाए. सैकड़ों फिल्में बनती हैं, कितनी हिट होती हैं? सैकड़ों किताबें छपती हैं, कितनी बिकती हैं?
करोड़ों खर्च करके इतनी पब्लिसिटी नहीं मिलती, जितनी इस तरह मिली है.
'प्रधानमंत्री के दफ़्तर के भेदिए' की पीठ पर लादकर किताब बेचने की, अमरीका की रंगीनियाँ दिखाकर फ़िल्में बेचने की कोशिशें हो चुकी हैं. इस बार 'विलेन' को 'हीरो' बनाकर किताब बेचने की, अमरीका को 'नस्लवादी' बताकर फ़िल्म बेचने की बारी है.
नीतियों, सिद्धांतों, विचारों, उसूलों की बात करने वाले बातें करते रहेंगे. ख़रीदार तय करेंगे, क्या बिकेगा, क्या नहीं.
बाज़ार की नीति, सिद्धांत, उसूल एक ही है-- सिक्का वही खरा है जो चल जाए. चाहे मुझे-आपको बुरा लगे या भला.

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