सलाम-तुझे सलाम!!!!!

हाल ही में सिक्किम जाना हुआ, मकसद नाथुला पास देखना था, सो गैंगटाक पहुंचा, और फिर नाथुला के लिये कवायद शुरू हुयी, फौज ने सहयोग का वादा किया था, लेकिन फिर वादा खिलाफी भी की, लेकिन फिर भी जितना देखा ,उससे देश की इस संस्था के लिये सम्मान और पैदा हुआ, नाथुला दर्रा गैंगटोक से 50 किमी दूर है, 1962 में यंही पर भारत और चीन के बीच तेज लडाई हुयी थी, तभी से ये दर्रा बंद है, हालाकि ये पुराना सिल्क रूट है, जंहा से चीनी यात्री भारत होते हुये, मध्य एशिया जाते थे, लिहाजा इस रूट का अपना इतिहास है, जनवरी में वहां ठंड बढ जाती है, लेकिन मैं फिर भी जाकर फौज के रहन सहन को देखना चाहता था, इसलिये गया, मौसम बेहद ठंडा था, मै नाथुला नही जा पाया, 4 किमी दूर रह गया, लेकिन ये देख पाया कि फौज कैसे रहती है, हम अपने धरो में रह कर महफूज रहते है, लेकिन एक जवान मुस्तैदी से मोर्चे पर डटा रहता है...ये सब देखकर गीतिका की एक कविता याद आ गयी, जिसे आपके सामने रख रहा हूं, गीतिका मेरे साथ ज़ी न्यूज़ में काम करने वाली लडकी थी, उसने ये कविता कारगिल युद्ध को ध्यान में रखकर लिखी थी, लेकिन यंहा फिट बैठती है, पहले कविता फिर गीतिका...के बारे में....

An Ode to the Martyres


To the heroes of our nation
I bow my head in utter devotion.

I live in peace, because of you
There aren’t enough words to pay the due.

The tales are endless of your gallantry,
My obeisance to you is not momentary

You were braving bullets when I was at ease,
My gratefulness to you would always increase.

You laid your life for the nation’s pride,
How much should I thank you, simply can’t decide

I must value life,with your blood irrigated,
The cost you paid can not be mitigated.

To the mother of martyrs, I am obliged with gratitude
Of my indebtedness, unfathomable is the magnitude.

For the wives of the martyrs, my appreciation is avowed,
I was under warm aegis, when you were widowed.

For the orphans of martyrs, gushes the love of society,
That you grow up to be great citizens is our responsibility.

No thanksgiving of mine can ever match your sacrifice,
Of my peace and freedom, you built the edifice.


जैसा आपको बताया कि ये कविता लिखी थी गीतिका ने....पूरा नाम था और है गीतिका जैन....कविता लिखी थी 27 जुलाई 2003 को, उसने मुझे बुलाकर पढायी थी,मझे याद रह गयी, सो आपके सामने रख दी...दिलचस्प ये नही कि कविता है फौजियो के उपर...लेकिन इसलिये क्योंकि कविता एक एसी लडकी के ज़हन से निकली थी, जिसने फौज की कठिनाइयो को नही देखा था, वो मैट्रो में पली बढी एक बिंदास किस्म की इंसान लगी थी, जो महसूस किया, उसे कह दिया, उसे शब्दो का जामा पहना दिया ....
आज वो कंहा है, पता नही, लेकिन एक अजीब सा रिश्ता था उसके साथ...कुछ लोग आपको चंद लम्हो के लिये मिलते है, लेकिन कुछ अलग पहचान छोड जाते है....गीतिका की ये कविता 14000 फीट की उंचाई पर भी याद आ गये , तो लगा कि जरूर इनमे कोई बात होगी, सो फैसला कर दिया कि लिखूंगा....थैंक्स गीतिका...

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट