सफर, समय का...

सफर जिंदगी का....

पेट की आग बडी है...जिदा रहना है तो काम को करना ही पडेगा...नौकरी मतलब जो काम नौकर करे...और नौकर की क्या औकात होती है, वो तो जानते ही हो....ये सारी बाते सुनते ही एक आम इंसान बडा होता है...हम भी हुये ,लेकिन कमबख्त दिमाग का कैमिकल लोचा सोचने पर मजबूर कर देता है,...फिर जो लाइन चुनी थी , वो जनता की आवाज, आत्मा की आवाज कही और बतायी गयी थी...लेकिन क्या आज हर वो शख्स जो कारपोरेट वर्ल्ड में काम कर रहा है...कह सकता है कि वो जो काम करता है...वो उसके मिजाज, अंदाज के हिसाब से हो रहा है...उस तर्ज पर हो रहा है...पत्रकारिता या कहे कि मास मीडिया मे मेरा अनुभव तो कम से कम एसा नही रहा...ये हताशा का दौर हो सकता है...लेकिन टीआरपी के मकडजाल में फसें टीवी चैनल क्या वो राह पकड पायेंगें....जो कही खो गयी है...समय समय पर बदलते बॉस और एडिटर का अंदाजे-बंया बदलता है...और बदलता है लोगो के प्रति उनकी पसंद और नापसंद का दौर...हर ब़ॉस एसे दौडता है , जैसे जीवन की आखिरी दौड दौड रहा हो, शायद इसके बाद ना वो रहेगा, ना लोग रहेंगे, ना रिश्ता रहेगा.,..बॉस को एक खूबसूरत लडकी क्यो पसंद आती है...ये सवाल नही है...और ना रहा है...लेकिन एक तर्जुबे कार इंसान को तरजीह ना मिले और उसकी जगह नौसिखिये मलाई खाये तो तकलीफ होना मानवीय ही कहलायेगा...कार्यक्षेत्र में लिंग भेद 21 वी सदी की देन है...शायद सदियो पुरानी प्रथा का कारपोरटाइजेशन है...

गैरो को भला समझे,और मुझको बुरा जाना
समझे भी तो क्या समझे, जाना भी तो क्या जाना

समय का खेल है तब्दीली, एक हकीकत, लेकिन एक हकीकत और भी है कि तब्दीली भी तब्दील होती है....तो समय, अंदाज और मिजाज भी बदलेंगे...ये भी हकीकत है...और यही अंघेरे मे रौशनी की उम्मीद है....

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