बड़ी होती बेटी

उसके चले जाने के बाद भी जैसे घर की हर चीज़ में वह उपस्थित है. पलंग के नीचे खाली पड़ी पानी की बोतलें, उलटी पड़ी टी-शर्ट जिसमें से मुझे देखकर वह मुँह पर हाथ रखकर मुस्करा रही है. उसके जूते-चप्पलें कमरे के दो कोनों में पड़ी हैं. शैंपू की बोतल खुले मुँह औंधी है. किताब जिस तरह से खुली होंगी वैसी ही हैं. संतरे के छिलके कूड़ेदान में जाने के इंतज़ार में है. टेलीफ़ोन के 10 गुने आए बिल इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वह रात-दिन यहीं थी.
खेतों पर बादल रुई के बड़े-बड़े ढेरों की तरह छितराए हुए थे. ऐसा लगता था कि धरती पर कुछ था ही नहीं सिवाय कुछ मामूली धब्बों के. दूर से देखो तो ऐसी-ही वीरान लगती हैं. बिलकुल गतिहीन. ऊँचाई से देखने पर दूसरों की गति क्यों रुकी हुई लगती है.
वह बार-बार मुझे अपने कंधे से टहोका मारती और नीचे देखने के लिए कहती. चूँकि खिड़की उसकी जद में आती थी, इसलिए वह थोड़ी-सी टेढ़ी हो जाती. फिर बार-बार पूछती, “दिख रहा है न”. मैं देखती और कहीं खो जाती. मन था कि कहीं ठहर ही नहीं रहा था. मुझे चुपचाप देख उसने पूछा, “क्या सोच रही हो?”
“कुछ नहीं.” मैंने कहा. मैं कोई बात उससे नहीं करना चाहती थी. वह बार-बार मेरी और देखती और वापस मुँह फेर लेती. कितनी सारी चीज़ें थीं, चित्र थे. उसके पास कोई विकल्प नहीं था सिवाय जाने के और मेरे पास उसे भेजने के. मन को समझाने के कितने तर्क भी थे मगर यह जाएगी नहीं तो आगे कैसे बढ़ेगी? दुनिया में किस माँ-बाप के बच्चे उससे बंधकर बैठे रहते हैं.
वह नन्ही-सी थी. शायद एक ही महीने की. इस उम्र के सारे बच्चे कितना लंबा सोते हैं. मगर वह थी कि जब देखो तब बिना ठहरी आँखों से इधर-उधर ताकती रहती थी. सब उसे देखकर चकित होते. उसकी नानी कहती कि पिछले जन्म में क्या सोते-सोते मरी थी जो उसकी कमी अब जागकर पूरी कर रही है. जब से पैदा हुई है, सोती ही नहीं है. सुबह के वक़्त जब उसे भूख लगती तो भी वह न रोती. आँखें खोले पड़ी रहती लेकिन जैसे ही मैं जागती और उसकी आँखों से आँखें मिलतीं तो उसके सब्र का बाँध टूट जाता और वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती.
तब मैं हड़बड़ाकर उसे गोद में उठाती तो वह काल्पनिक दूध की चुस्कियाँ लेने लगती. डॉक्टर इसे बच्चे के संतोष और आनंद से जोड़ते. वह गोल-मटोल, गोरी-चिट्टी जिसकी आँखों में हमेशा मोटा काजल सजा रहता, अपने भाई के स्कूल से लौटने का इंतज़ार करती. वह आकर कमरे में जहाँ-जहाँ जाता उसकी आँखें चकफेरा लेकर उसके साथ-साथ घूमतीं. कुछ बड़ी हुई तो अपने मुँह से तरह-तरह की आवाज़ें निकालकर भाई का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करती. मेरे मन में कितनी बातें आ-जा रही थीं कि तभी एयर होस्टेस की आवाज़ गूँजी. मौसम ख़राब है. अभी अपनी सीट पर ही बैठे रहें और सीट बेल्ट को कसकर बाँध लें. सभी ने एअर होस्टेस की बात को माना था. बादल बिल्कुल खिड़कियों के पास से गुज़र रहे थे और निर्जनता ने उसके अंदर कितना डर पैदा किया होगा? सूरज की किरणें सफेद बादलों पर पड़कर कई-कई इंद्रधनुष बना रही थीं.
तभी फिर से एयर होस्टेस की आवाज़ सुनाई दी थी, “सीट बेल्ट का साइन अब बंद कर दिया गया है. आप आराम से बैठें. फिलहाल हम 34,000 मीटर ऊपर उड़ रहे हैं. जब हम जयपुर के ऊपर से गुज़र रहे थे तब मौसम ख़राब था. कुछ ही देर में हम लैंड करेंगे. उम्मीद है कि आपको हमारी सेवाएँ पसंद आएँगी और भविष्य में भी हम आपका स्वागत कर सकेंगे.” सन्नाटे को चीरता हल्का संगीत बज रहा था. एयर होस्टेस ने कैंडी की ट्रे आगे बढाई तो उसने चुनकर इमली की खट्टी-मीठी टॉफी लेकर मेरे हाथ में पकड़ा दी. फिर दृढ़ता से कहा खाओ. तब तक नाश्ते की ट्रॉली आ पहुँची. वह मेरे कान में फुसफुसाई, “नाश्ते के लिए मना मत करना. ले लेना.”“लेकिन मुझे तो खाना ही नहीं है,” मैंने कहा.“यह कैसा एटीट्यूड है?” वह नाराज हो गई. “ठीक है, तुम मत खाना मेरे लिए तो ले लेना.”
मैं कुछ नहीं बोली. फिर कहा, “तू कितना खाएगी?”
“जितना मन करेगा खा लूँगी. कम से कम वेस्ट तो नहीं होगा. एअर लाइन कोई फ्री में दे नहीं रही. सब चीज़ों के पैसे दिए हैं हमने.” मैंने उसकी प्रैक्टीकैलिटी को चकित होकर देखा. लड़की बड़ी हो गई है. मैंने सोचा और फिर उसके उस बचपन में लौट गई...
एक रात उसके पिता ज़ोर-ज़ोर से सिसकियाँ ले रहे थे. मैंने उन्हें झकझोर कर उठाया. वह आँखें मलते उठे और भौचक्के से इधर-उधर देखने लगे. थोड़ी देर बाद गहरी साँस लेते हुए बोले, “ओफ ओह, तो मैं सपना देख रहा था. यह तो देखो कितने मजे से सो रही है.” उन्होंने सोती हुई बच्ची की तरफ इशारा करते हुए कहा.“हुआ क्या?” मैंने रात के दो बजे उन्हें पानी लाकर दिया.
“अरे मैंने कितना बुरा सपना देखा था. मैंने देखा,” उन्होंने सोती हुई ‘इसकी’ तरफ इशारा करते हुए कहा, “यह मर रही है. इसकी साँस टूट रही है.”. फिर उन्होंने आशक्ति के लिए अपनी उस चार महीने की बच्ची पर हाथ रखा था जो मजे से सो रही थी. उसे पिता के दुहस्वप्न के बारे में कुछ नहीं मालूम था.
ऐसा ही तो तब हुआ था जब मुन्नी बहन जी ने इसे रख लिया था...
नाश्ता सर्व किया जा रहा था. वेज होने पर सामने इडली, सांभर, कटे हुए फल और चाय के लिए खाली कप रखे हुए ट्रे आ गई. चाय बाद में सप्लाई होने वाली थी. उसने मुझे कंधा मारकर खाने का इशारा किया लेकिन जब मुझे चुप देखा तो धीरे से बोली, “पापा ठीक कहते हैं. तुम कितनी जिद्दी हो. इसमें कुछ भी तो नॉनवेज नहीं है.”
“नॉनवेज की बात नहीं है. तुम्हें पता है न, मेरा व्रत है.” मैंने कहा.
“तो क्या हुआ, आज के लिए व्रत तोड़ नहीं सकतीं.” उसकी नाराज़गी उसके सैंडविच चबाने में भी झलक रही थी. “उस व्रत का क्या फ़ायदा कि जब मर्जी आई तोड़ दिया और जब मर्जी आए तो कर लिया जाए.” मैं बात पूरी करती, उससे पहले ही एक हाथ में चाय की केतली और दूसरे में कॉफी की केतली पकड़े एयर होस्टेस आई तो मैंने चाय ज़रूर ले ली.
थोड़ी देर तक वह मुँह फुलाए खाती रही. इसके बाद कहने लगी, “आज तुम किस सोच-विचार में डूबी हो. कुछ बोलती क्यों नहीं?” फिर कुछ देर बाद ही बोली “तुम यह भी चाहती हो कि मैं खूब सक्सेसफुल होऊँ और तुम से कहीं दूर भी न जाऊँ. सोचों यहाँ तो तुम जब चाहो तब दो घंटे में मेरे पास पहुँच सकती हो, अगर मैं इंग्लैंड चली जाती तो...”
उसके गले में हल्का-सा कंपन था. वह खिड़की से बाहर देखने लगी. मैंने आँखें बंद कर ली थी. मैं वर्षों पुरानी बातों में डूब गई थी. एक बार मुझे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था. पथरी के दर्द के कारण मैं रात भर परेशान रहती थी. एक बार तो बेहोश तक हो गई थी. तब डॉक्टर को लगा था कि अब ऑपरेशन के अलावा कोई रास्ता नहीं है. डॉक्टर को लगता था कि शायद गॉलब्लैडर में इंफै़क्शन हो गया है. वे 10 दिन अजीब दुश्चिंताओं में बीते थे. न जाने मुझे कितने दिन ठीक होने में लग जाएँगे. दर्द से परेशान होते हुए भी डॉक्टर से मैंने यही कहा था, “डॉक्टर साहब मुझे जल्दी से दर्द से छुटकारा दिलाइए. मेरे बच्चे छोटे हैं. मेरे बिना उनकी कौन देखभाल करेगा? बच्ची तो अभी सिर्फ़ चार महीने की है.” उनके आसपास वाले उसे पूछने भी लगे थे कि वह कब पैदा हुई? वक़्त गुजरने लगा. वह घर में एक अनिवार्य इकाई की तरह शामिल हो गई. उसका नन्हा भाई उस पर जान छिड़कता. अपने हिस्से की हर टॉफी, चाकलेट, फल यानी सब कुछ वह उसे खिलाने की कोशिश करता. उसने सचमुच अपने को अपनी बहन से बहुत बड़ा मान लिया था. वह भी उसके आसपास होने भर से फूल ही तरह खिल उठती.
उसका प्रिय शौक था लोगों की हूबहू नकल उतारना. किसी भी बात के लिए अड़ जाना. अब भी जब दीवारों को पुताई के लिए खुरचा जाता है तो उसके बनाए चित्रों की छायाएँ नज़र आती हैं. वक़्त ने उन्हें धुंधला कर दिया है. उन चित्रों में उनके भविष्य के संकेत छिपे हुए हैं, कितनी स्मृतियाँ और नटखटपन. यही नहीं, घर की हर किताब पर आड़ी-तिरछी रेखाओं के रूप में उसका बचपन मौजूद है.
आज से कुछ साल बाद क्या उसे याद भी रहेगा कि कौन से रजिस्टर में क्या लिखा है? वक़्त की मोटी परत सब कुछ किस कदर मिटा देती है? कुछ भी तो याद नहीं रहता. बच्चे अतीत को पीछे छोड़, आगे दौड़ते चले जाते हैं. न जाएँ तो हो भी क्या? सिर्फ़ माता-पिता ही हैं जो पुराने दिन लौट आने के इंतज़ार में पुरानी यादों के सहारे वक़्त को पकड़े रखना चाहते हैं.
जहाज अब पहाड़ों के ऊपर से उड़ रहा है. चट्टानें लगती हैं जैसे धरती लाल हो गई हो. जो इमारतें धरती पर अपनी ऊँचाई के कारण इतराती हैं उन्हें यहाँ से देखो तो वे पेंसिल बराबर दिखाई देती हैं. ऊँचाई का क्या अंत है भला? बच्चे जिनके बारे में माता-पिता हमेशा उनके आगे बढ़ने की सोचते हैं और हमेशा अनहोनी की आशंका से परेशान रहते हैं.
पिछले साल की उस रात की शंका से मैं आज भी कॉप जाती हूँ. उस शाम दफ़्तर से आ रही थी. मैंने देखा वह रिक्शे में बैठी चली आ रही है. उसने वहीं से आवाज़ देकर कहा मम्मी, तुम्हारे पास चाबी तो है न, मैं जा रही हूँ. रिक्शा जैसे उसे लिए उड़ा चला जा रहा था.
रात के नौ बज रहे थे. वह अभी तक नहीं लौटी थी. उसके पिता ने फोन किया तो उसने वह भी नहीं उठाया. तभी एकाएक फोन की घंटी बजी. उधर से उसकी सहेली ने उसका नाम लेकर पूछा कि उसे आज आना था, वह आई क्यों नहीं?आई नहीं? मगर वह तो तभी चली गई. घबराहट के मारे सिर चकराने लगा. क्या हुआ? रास्ते में कोई एक्सीडेंट, कोई पकड़ ले गया. अपहरण, बलात्कार...इस इतने बड़े शहर में अगर कोई उसे उठा ले गया होगा तो कहाँ ढूंढ़ेंगे?
आशंकाएँ मन में घर बसा रही थीं. लगता था कि लड़की अब कभी नहीं मिलेगी. उसके मोबाइल को भी तो किसी ने अपने कब्ज़े में ले लिया है तभी तो स्विच ऑफ आ रहा है. मोबाइल न मिले तो डर 100 गुना बढ़ जाता है. उसकी आख़िरी आवाज़ ‘मम्मी, चाबी है न’ बार-बार कानों में बज रही थी. क्या अब उसकी आवाज़ कभी सुनाई नहीं देगी. हे ईश्वर, मेरी बच्ची की रक्षा करना. उसके बिना हम सब एक-एक करके तिल-तिल खत्म होंगे. मेरा भतीजा जो संयोग से ही आया है, दिलासा देता है कि बुआ, घबराओ मत. उसे कुछ नहीं होगा. मैं कुछ नहीं कह पाती हूँ. सिर घूम रहा है.
तभी उसका भाई चिल्लाता है, “आ गई.”सीढ़ियों पर पदचाप सुनाई दे रही है. वह उसे पहचानता है.वह खुले दरवाज़े से अंदर घुसी है. और सबके अवाक और घबराए हुए चेहरे देखकर रुककर पूछती है क्या हो गया. सब मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हैं.
उसका भाई कुछ नाराज़ होते हुए पूछता है, “तू अपना फोन क्यों नहीं उठा रही थी.”
“उसमें तो बैटरी ही नहीं थी.” उसने कहा तो अंदाज़ा लगा कि आशंकाओं के बीच यह बात तो दिमाग में ही नहीं आई कि किसी तकनीकी ख़राबी के कारण भी मोबाइल नहीं मिल सकता है. “गरिमा का फोन आया था. तू वहाँ नहीं गई.” उसके पिता ने पूछा.
“वह तो पागल है. मैं बताकर तो गई थी कि अपने टीचर के यहाँ जा रही हूँ.” उसके पिता को याद आया कि सचमुच उसने बताया था. लेकिन गरिमा के फोन और उसके मोबाइल के न मिलने ने सब कुछ गड़बड़ कर दिया था. फिर आख़िरी वक़्तव्य उसी ने दिया था मुझे पता था कि यहाँ सब गड़बड़ हो रहा होगा.
उस दिन डर के मारे पाँव से जान निकल गई थी. आज भी पाँवों ने काम करना बंद कर दिया था. जहाज नीचे उतर रहा था. सड़कों पर आवाजाही दिखाई देने लगी थी. नीचे आते ही इमारतें अपने बड़े होने का अहसास कराने लगी थीं.जहाज रुका तो सब तरफ ब्लू लाइन बस की तरह अफरातफरी मच गई. लोग जल्दी से जल्दी ऊपर रखा सामान निकालकर बाहर जाने के चक्कर में थे. एयर होस्टेस और जहाज का क्रू सबको बाय-बाय कहकर दोबारा आने का निमंत्रण दे रहे थे.
कल शाम इसे यहाँ अकेली छोड़कर मुझे अकेले ही लौटना होगा, इस कल्पना से मन थर्रा रहा था. अपना बच्चा अपने शरीर का अंग ही..कभी घर से अलग रहा नहीं उसे यों छोड़कर चले जाना...घोंसले में अपने बच्चे को दाना खिलाती चिड़िया...बच्चे का बड़ा-सा मुँह फाड़ना...और अधिक और अधिक माँगना फिर धीरे-धीरे पीठ पर दो छोटे-छोटे सींग की तरह पंख उग आते हैं. तब वे माँ के साथ धीरे-धीरे पृथ्वी पर उतरकर दाना, कीड़े चुगते हैं...उछल उछलकर चलते हैं. चिड़िया किसी रक्षक की तरह उनके आसपास मंडराती रहती है. फिर एक दिन वे लंबी उड़ान पर निकल जाते हैं. कभी न लौटने के लिए. वे अपने माता-पिता को भूल जाते हैं.
बाहर टैक्सी में बैठकर उसके होस्टल की ओर जाते हुए लगता है कि यह भी उड़ान पर निकल पड़ी है. उसके पंख अभी-अभी खुले हैं. पता नहीं उसे कहाँ तक पहुँचना है. मेरे आँसुओं से अगर उसके पंख भीग गए तो वह उड़ नहीं सकेगी. मेरे हिस्से की धरती पर वह कब तक रहेगी. मेरी बढ़ती उम्र के साथ मेरे हिस्से की धरती भी कम होती जा रही है. अच्छा है वह इतनी दूर निकल जाए कि कभी न लड़खड़ाए.मैं उसे वापस जाने के लिए बाय कहती हूँ. वह क्लास में बैठे हलके से सिर हिलाती है और मुँह फेर लेती है. वह मुझे नहीं दिखाना चाहती कि वह रो रही है.
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क्षमा शर्मा17बी-1, हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंटस, मयूर विहार फेज-1, दिल्ली-110091

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