साकी गयी बहार दिल में रही हवस
तू मिन्नतों से जाम दे और मैं कहूं कि बस

न देखा वो कहीं वो जलवा
जो देखा वो खाना-ए-दिल में
बहुत मस्जिद में सर मारा
बहुत सा ढूंढा बुतखाना
जफर
ज़ौक़ जो मदरसे के बिगडे हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले आओ संवर जायेंगे

मोमिन
कुछ लोग है खामोश
मगर सोच रहे है
सच बोलेंगे तब
सच के जब दाम बढेंगे
दाग दहलवी
मज़हबी बहस मैने की ही नही
फ़ालतू अक्ल मुझमें थी ही नही

पैदा हुआ वकील तो इबलीस ने कहा
कि लो आज हम भी साहिबे-औलाद हो गये

इस राज़ को तो मर्दे फिरंगी ने किया फाश
हर चंद कि दाना उसे खोला नही करते
जमहूरियत एक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें
बंदो को गिना करते है तोला नही करते

खुदा तुझे किसी तूफां से आशना कर दे
कि तेरे बहर की मौजों में इज़तिराब नही

जलाल-ए-बादशाही हो या जमहूरी तमाशा हो
जुदा हो दीन सियासत से तो रह जाती है चंगेजी
चंगेज़ी
सब तेरे सिबा काफिर आखिर इसका मतलब क्या
सर फिरा दे इंसा का ऐसा ख़ब्त-ए-मज़हब क्या

फिराक
ऐ शैख़ गर असर है दुआ में
तो मस्जिद हिला के दिखा
गर नही तो दो घूंट पी
और मस्जिद को हिलता देख

शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
शुक्र है जिंदगी तबाह न की

इक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे है हमने हौसले परवरदिगार के


तुझ से पहले जो इक शख्स यंहा तख्त नशी था
उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यंकी था

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