क्या आपको भी होती है वैचारिक शून्यता
पिछले कई दिनो से मन परेशान था, कि क्या लिखू, किस पर लिखूं...विषय सोचो माथा पच्ची करनी पडती है...जोर डाल कर दिमाग को खगोलो तो लगता है कि क्यो इतना जोर डाल रहे हो। लिखने पर दबाब रहे तो क्या खाक लिखेंगे। लगता है कि मानसिक शून्यता की स्थिति में पंहुच गये है। चीजो से उब होती जाती है जो काम रोज करते है , उससे ऊब होती है । शायद सबको होती है। मुझे भी होती है। लगता है जहां हूं वहां क्यों हूं। जहां नहीं हूं वहां क्यों नहीं हूं। यह काम अच्छा नहीं है। वह काम अच्छा है। उस काम वाले से मिलता हूं तो कहता है आपका काम बड़ा अच्छा है। आपका काम उम्दा है, लेकिन क्यो बदलना चाहते है। ठीक है, मस्त रहिये। कंपनी तनख्वाह तो देही रही है। लेकिन ऊब से कंफ्यूज़ हो जाता हूं। लगता है टीवी ठीक नहीं है, शायद अख़बार ठीक है। अख़बार कहता है टीवी ठीक है। अपने दफ्तर को भला बुरा दूसरे दफ्तर को ठीक समझने लगता हूं। दूसरे दफ्तर वाले से मिलने के बाद अपने दफ्तर को ठीक समझने लगता हूं। लगता है हर अच्छी चीज़ बुरी होती है और हर बुरी चीज़ अच्छी होती है। मैं ऊब रहा हूं। इन दोनों ही स्थितियों से। कुछ नया करना चाहता हूं। पिछले दिनों जो नया किया उन्हीं से ऊब गया हूं। फिर एक और बार ऊबने के लिए कुछ और नया क्यों करना चाहता हूं। एक ही कुर्सी और एक ही मेज़। बैठने की एक ही जगह। एक सा काम, ऑफिस की वही राजनीति। दफ्तर के काम की कोई प्रगति नहीं। सिर्फ दिन बीतने की प्रगति। पहले दिन से रिटायर होने के आखिरी दिन तक पहुंचने की प्रगति। किसी से ये बात करो , तो कहते है कि मिंया काम करो, और पैसे लो। धर जाओ, या बीबी के साथ फिल्म देख आओ। वर्ना बडी खूबसूरत कन्याये ऑफिस है। जरा उधर भी ध्यान लगाईये, ऊब खत्म हो जायेगी। अपना सिर पकड कर और धन्यवाद देकर मुस्कराता हुआ चल देता हूं। मेरे दादाजी टीचर थे। अपनी ताजिंदगी वो एक ही काम करते रहे। वो मथुरा में एक स्कूल में पढाते रहे। मैने जब होश संभाला तो वो रिटायर हो चुके थे। लेकिन पढाने और अपने को स्वस्थ रखने का जो जज्बा मैने उनमें ८५ साल तक देखा था, वो गज़ब था। लेकिन मैं ऊब रहा हूं। या फिर कभी कभी वैचारिक शून्यता निराश करती है। लगता है कि क्या लिख भी सकता हूं । या कुछ नही आता, जिन लोगो की लेखनी से प्रभावित रहा हूं, उनमें हितेश शंकर, रवीश कुमार, संजय तिवारी जैसे लोग है। मन करता है कि क्या ये लोग भी इस स्थिति का शिकार होते । वैसे इस बात का शोध होना चाहिये। ऐसे तमाम लोगों पर शोध होना चाहिए। वो एक ही तनख्वाह, एक ही दफ्तर और एक ही दिशा में बैठे बैठे ऊबते क्यों नहीं हैं। हम क्यों ऊब जाते हैं। मैं क्यों ऊब जाता हूं।
टिप्पणियाँ
यह समभाव तब उतरता है जब आप जो सोचते हैं वह करते हैं. एकदम से तो नहीं लेकिन धीरे-धीरे इस अवस्था में पहुंचा जा सकता है. फिर फिक्र नहीं कि कौन क्या कहता है? कौन क्या सोचता है? लेकिन इस रास्ते चलने पर भौतिक त्याग का संकट है. तैयार हो तो चलो.
मन की आजादी और भौतिक संपन्नता दोनों कभी साथ नहीं आती. एक के लिए दूसरे का त्याग करना पड़ता है. कोई सुनी सुनाई कहानी नहीं अनुभव की बात बोलता हूं. इनमें कोई बैलेँश नहीं हो सकता. जो बैलैंश तलाश रहे हैं वे दुखी हैं.
सफलता कहीं बाहर नहीं है. वह तो हमारे मन की एक अवस्था है बस. आप कल्पना करें कि आप बहुत प्रसिद्ध हैं और आप प्रसिद्ध हो जाएं दोनों में कोई फर्क नहीं है. क्योंकि वास्तव में वहां कुछ घटित ही नहीं होता. आप का आंतरिक उत्थान जैसा होता है उसी मात्रा में आपको हमको शांति मिलती है. बाकी तो सब चोंचलेबाजी है.
इसका मतलब है अब आपको नए जाब के बारे में सीरियसली सोचना चाहिए । :-):-)